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________________ ( २४ ) का उचित समाधान कर सकेंगे तो मैं उनका शिष्य हो जाऊँगा। हुआ भी यही और शुक उन जैनाचार्य का शिष्य हो गया। तृतीय सूत्र ठाणांग में जो नमि, मातंग आदि दश अन्तकृत् केवलियों के नाम पाये जाते हैं, वे प्रायः वे ही हैं जो अकलंककृत तत्त्वार्थराजवार्तिक (सूत्र १.२०) में पाये जाते हैं । अन्तकृत् उन्हें कहते हैं जो दारुण उपसगों को जीतकर समस्त कर्मों का क्षय करके संसार से मुक्त हो जाते हैं। इनमें पाँचवें अन्तकृत् का नाम सुदर्शन है। ये दशों केवली महावीर तीर्थकर के तीर्थ में कहे गये हैं। वर्तमान में उपलब्ध नवमें अंग अन्तकृद्दशा में यद्यपि उक्त प्रकार से अन्तकृत् केवलियों के नाम नहीं पाये जाते, तथापि वहाँ एक प्रसंग में सुदर्शन का नाम आया है। इस अंग के छठे वर्ग के मुद्गरपाणि नामक अध्ययन में अर्जुनमाली के विषय में कहा गया है कि उसने मुद्गरपाणि नामक यज्ञ की मूर्ति की निष्फल आराधना से रुष्ट होकर मूति के हाथ से मुद्गर छीन लिया और उस मार्ग से जाने वालों पर प्रहार करने लगा। राजा श्रेणिक ने नागरिकों का उस मार्ग से यातायात निषिद्ध कर दिया। संयोगवश उसी समय वहाँ भगवान महावीर का आगमन हुआ । अर्जुनमाली के भय तथा राजा के मार्ग-निषेधादेश के कारण कोई नागरिक उनकी वन्दना को नहीं जा सके। किन्तु भगवान महावीर का एक परम भक्त सुदर्शन नामक युवक किसी प्रकार भी अपने माता-पिता द्वारा रोके जाने पर भी नहीं रुका। अर्जुनमाली ने उस पर आक्रमण किया। किन्तु उसकी धर्मनिष्ठा और शान्त प्रकृति से प्रभावित होकर वह उसका मित्र बन गया, उसके साथ वह भी भगवान के दर्शन करने गया और उसने भी मुनि-दीक्षा लेकर सिद्धि प्राप्त की। निश्चय ही ये सुदर्शन पाँचवें अन्तकृत् केवली हुए हैं, और वे ही प्रस्तुत काव्य के कथा-नायक हैं, क्योंकि ग्रन्थ के आदि के द्वितीय कडवक में भी स्पष्टतः कह दिया गया है कि आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ से लेकर सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में भी दस-दस अन्तकृत् केवली होते हैं। उनमें अन्तिम तीर्थंकर महावीर के तीर्थ के पाँचवें अन्तकृत् सुदर्शन हुए। उन्हीं का यह चरित्र प्रारम्भ किया जाता है। सुदर्शन की कथा का एक अन्य प्राचीन संकेत हमें शिवार्यकृत मूलाराधना या भगवती आराधना की निम्न गाथा में मिलता है जो निम्न प्रकार है अन्नाणी वि य गोवो आराधित्ता मदो नमोक्कारं। चांपाए सेट्ठि-कुले जादो पत्तो य सामन्नं ।। (गाथा ७६२) इस गाथा में यद्यपि सुदर्शन का नाम नहीं आया, तथापि उनके पूर्व भव में एक अज्ञानी ग्वाल होने और नमोकार मन्त्र की आराधना द्वारा मरकर चंपा के श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होने एवं श्रमणधर्म स्वीकार करने का स्पष्ट उल्लेख होने से उसके कथानायक सुदर्शन ही होने में कोई संदेह नहीं रहता। सुदर्शन की पूरी कथा हमें प्रथम बार हरिषेण-कृत बृहत्कथाकोष (६०) में उपलब्ध होती है । यहाँ १७३ संस्कृत श्लोकों में सुदर्शन-चरित्र की वे सभी घटनाएँ
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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