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________________ ( २३ ) पिता का एक विशेष उपकार है, जिसके कारण मैं तुम्हारा कुछ प्रत्युपकार करना चाहता हूं। ___आज जब राजा ईशानचन्द रानी अनंगवती के महल में गया तो उसने देखा कि रानी का मुख नखों से तुचा हुआ है और अश्रु जल से उसके कपोलों की पत्रलेखा धुल गई है। पूछने पर रानी ने बतलाया कि कई दिनों से सनत्कुमार उससे प्रेम याचना कर रहा था, जिसे उसने स्वीकार नहीं किया, किंतु आज सनत्कुमार ने स्वयं आकर व अपनी मनमानी कर उसकी यह दुर्दशा की है। यह सुनकर कुपित हो राजा ने मुझे आदेश दिया कि मैं तुम्हें चुपचाप मार डालूँ, किन्तु तुम मेरे पिता के उपकारी हो और मैं तुम्हें कदापि मारना नहीं चाहता, अतएव तुम्ही बतलाओ अब मैं क्या करूँ ? विनयंधर की बात सुनकर सनत्कुमार ने पहले तो उसे राजा के आदेशानुसार करने को कहा। किन्तु उसके यह बात न मानने पर सनत्कुमार ने ताम्रलिप्ति से भाग जाना ही उचित समझा। अतएव उसने विनयंधर से विदा लेकर अपने मित्र वसुभूति सहित स्वर्ण द्वीप को जाने वाले जहाज द्वारा वहाँ से प्रस्थान कर दिया। विनयंधर ने जाकर राजा से कह दिया कि सनत्कुमार मार डाला गया। उक्त प्राचीन आख्यानों में हमें प्रायः वे सभी कथानक दृष्टिगोचर हो जाते हैं जो सुदर्शनचरित कथा के अभिन्न घटक हैं । जहाँ तक इस कथा के नायक का वैयक्तिक सम्बन्ध है, सुदशेन नामक वणिक् के अनेक उल्लेख अर्द्ध-मागधी आगम ग्रंथों में पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ पाँचवें अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र) के अनुसार सुदर्शन नामक वणिक् राजगृह निवासी एक धनी थे, तथा तीर्थंकर महावीर के समकालीन व्यक्ति थे । वे एक आदर्श श्रावक थे और उन्होंने भगवान् महावीर को अनेक बार आहार-दान दिया था। उन्होंने श्रमण निग्रंथ धर्म की दीक्षा भी ली थी, और इस सम्बन्ध में उनके पूर्व ऋषभदत्त श्रावक का भी उल्लेख किया गया है। उन्होंने कठोर तपश्चरण किया, संपूर्ण अंगों का अध्ययन किया और केवल ज्ञान प्राप्त किया (भग० सू० ९, १३, ३८२, ११, ११, ४२४-४३२; १५, १ ५४१ आदि)। इन उल्लेखों में प्रस्तुत कथानक से केवल कथानायक के नाम, उनके धामिक व धनी गृहस्थ होने तथा मुनि-दीक्षा धारण कर केवल ज्ञान प्राप्त करने मात्र बातों का साम्य है। इतनी बात और ध्यान देने योग्य है कि उन्हीं के समान ऋषभदत्त श्रावक भी थे और उन्होंने भी मुनि-दीक्षा ली थी। प्रस्तुत कथानायक सुदर्शन के पिता का नाम ऋषभदास है । इतनी विषमता भी है कि वहाँ सुदर्शन सेठ राजगृह के निवासी हैं, जब कि यहाँ चम्पा नगरी के।। __ सात अंग णायाधम्मकहा-के पाँचवें अध्ययन में शुक परिव्राजक की कथा आयी है। शुक वेदों का ज्ञाता व धर्म-प्रचारक और सुदर्शन नामक एक गृहस्थ उसका अनुयायी था। पश्चात् सुदर्शन तीर्थकर के सम्पर्क में आकर जैनधर्म का अनुयायी बन गया। इस पर शुक परिव्राजक ने उसको पुनः अपने धर्म में लाने हेतु कहा कि हम तुम्हारे धर्माचार्य से मिलना चाहते हैं। यदि वे हमारे प्रश्नों
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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