SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९६ नयनन्दि विरचित [ ६. १७पकड़नेवाला ही था, जैसे सिंह हरिण पर झपटे, तब वह बेचारा अरण्य में एक अन्धकूप को देखकर प्रयासपूर्वक दृढ़ काशतृण को पकड़कर उस कूप में लटक गया। त्रस्त होकर जब उसने नीचे को देखा, तो उसे वहां एक अजगर दिखाई दिया और उसने चारों कोनों में चार प्रचंड सर्प भी देखे। वह जिस काश से लटका हुआ था, उसे एक काला और दूसरा श्वेत, ऐसे दो मूषक प्रयासपूर्वक काट रहे थे। इसी बीच वह हाथी दौड़ता हुआ वहां आ पहुँचा और उस मनुष्य को न पाकर, तथा उस अन्धकूप के तटपर एक वृक्ष को देखकर, उसने उस पर दांत से आघात किया। इससे वह वृक्ष कांप गया और उसकी शाखा से मधुमक्खियों द्वारा संचित मीठा मधु झरकर नीचे गिरा। मधुमक्खियों की भिनभिनाहट का शब्द सुनकर अन्धकूप में लटके हुए उस मनुष्य ने झट अपना मुख ऊपर किया। (यह सोलह और दस कलाओं से युक्त विषमपद पादाकुलक छन्द है।) जब वह मनुष्य ऊपर को देख रहा था, तभी खल्वाट-बिल्व संयोगवश ( काक-तालीय न्याय से ) उसकी जीभ पर एक मधुबिन्दु आ पड़ा। इसे वह अनुराग से चाटने लगा। १७. दृष्टान्त संसार का रूपक अब वह मधुमक्खियों का झुंड क्रुद्ध होकर उसकी समस्त देह पर आ लगा, जिस प्रकार कि, कूपूत को अपयश, चन्दन-वृक्ष पर सर्प तथा नीच घर में धूर्त आ लगता है। इस दृष्टान्त में काननरूप यह संसार है और वह मनुष्य रूप ही जिननाथ द्वारा जीव कहा गया है। भिल्ल-पथ अधर्म का उपलक्षण है, तथा, हे वणीश्वर, वनहस्ती ही मृत्यु कहा गया है। अन्धकूप यह बहुत से दुखों का भाजन देह है। अजगर ही भयावना नरकवास है। चार सर्प अति दुर्धर कषाय हैं, जो जगत को डस रहे हैं। उनसे जीव कैसे छूट सकता है ? काश का पुंज आयु है, तथा हे मतिदक्ष, काले और श्वेत मूषक, कृष्ण और शुक्ल दो पक्ष हैं। वृक्ष अति दुश्चल कर्मबंध है, तथा मधुबिन्दु चञ्चल इन्द्रिय-सुख हैं। मधुकरियां अप्रमाण व दुस्सह व्याधियां हैं, जो उस मुख उठाए मनुष्य को पीड़ा देती हैं। यह सब जानते हुए भी जीव इसकी अवहेलना करता है, जिस प्रकार कि अशुचि कृमि अशुचि में ही रति मानता है। इस प्रकार इस निस्सार संसार में तप ही परमसार है, जिसके द्वारा हे वणिग्वर, भव भव में किया हुआ कर्ममल नाश को प्राप्त होता है। १८. सेठ का स्वपुत्र को लोक व्यवहार का शिक्षण जिनेन्द्र भी गृहस्थ होते हुए चरित्रहीन अवस्था में ध्यान को प्राप्त नहीं होता, और ध्यान के विना मनुष्यों को मोक्षरूपी मनोहर नगर पाना दुर्लभ है। मुनि का यह उपदेश सुनकर, वणीन्द्र निर्वेद को प्राप्त हो, वहाँ से लौटा और अपने
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy