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________________ सुदर्शन चरित १९५ १४. स्त्रियों को रात्रि-भोजन-त्याग के सुफल जो युवती भी बहुरसात्मक रात्रि-भोजन को विष के समान त्याग देती है, वह आकाश के समान निर्मल व पवित्र उत्तम कुल पाती है। उसके केश घुघराले, चन्द्र के समान मुख, मृग जैसे नेत्र, स्निग्ध ( चमकीले ) दांत, लाल ओष्ठ, मधुर स्वर, किसलय सदृश भुजाएँ, कलश जैसे सघन स्तन, क्षीण कटि एवं गुरु नितम्ब होते हैं। वह लोगों में अनुराग उत्पन्न करती है। उसकी गति हंस के समान होती है। वह नई बेल के समान लहलहाती व कोमल होती है। वह समस्त अवयवों में सुलक्षण व विद्वानों द्वारा स्तुत्य होती है। वह श्री ( लक्ष्मी ) के समान नरेन्द्र की प्रागप्रिया बनती है। उसे थान, पालकी, ध्वजा व मत्तगज तथा उत्तम तुरंग, बड़े बड़े रथ, भटसमूह एवं विविध पुष्पों, फलों तथा पत्रों से सघन उपवन प्राप्त होते हैं, जहां वह मनोहर सहचरियों के साथ क्रीड़ा करती है। ( यह रत्नमाला पद्धडिया नामक छन्द प्रकट किया गया है)। इस प्रकार सैकड़ों सुखों को भोगकर, वह वैराग्य धारण कर तप पालती है, और दूसरे की बात क्या, स्वयं इन्द्र के इन्द्रत्व को ढा देती है ( जीत लेती है )। १५. स्त्रियों के रात्रि-भोजन से दुष्परिणाम किन्तु जो स्त्रियां कुगुरु और कुदेव की भक्त हैं, तथा मद से प्रमत्त होकर रात्रि भोजन करती हैं, वे मर कर कात्यायनी के समान दुर्निरीक्ष्य ( कुरूप ) होती हैं। वे रति-लंपट, रंडी, मुंडी, चेटी, दासी, चिपटीनाक, विकृतभाल, पिचके गाल, चौंधे नेत्र, लंबे दांत, हड्डियों से विकराल, कोयले जैसी काली, लंबे स्तनों वाली एवं असुहावनी होती हैं। वे ठूठी, लंगड़ी, मोटी, छोटी, बहरी, अंधी, अतिदुर्गन्धी, कामकाज मात्र करने वाली, पराई चाकरी मात्र करने वाली, बुरी लगने वाली, हीन, दीन, कर्म-शिथिल, मैली, कुचैली, कलहशील, भिखमंगी होकर दुःख सहती हैं। इसी अवस्था में चिरकाल तक रहती हैं। सुख की इच्छा करती हैं। देव पर ( या अपने पति पर ) रुष्ट होती हैं और अपने को कोसती हैं। इतने पर भी वे मूढ़ पाप में फँसी हुई त्रिभुवनरम्य धर्म में नहीं लगती। तत्पश्चात् वणिग्वर ऋषभदास के पूछने पर मुनिवर ने कोई बात छिपाई नहीं और उन्होंने अन्धकूप के दृष्टान्त द्वारा जीव के सुख-दुःख का व्याख्यान किया। १६. मधु-बिन्दु दृष्टान्त ___कोई एक मनुष्य वृक्षों से सघन वन में गया था। वहाँ वह भटक गया और भीलों के मार्ग में पहुँचा। वहाँ उस पर एक सूंड उठाए, गुड़गुड़ाते हुए मदोन्मत्त हाथी ने दौड़कर आक्रमण किया। गज से भयभीत होकर वह मनुष्य भागा, किन्तु उसे कहीं शरण नहीं मिला। जब वह हाथी उस मनुष्य को
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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