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________________ ६. २०] सुदर्शन चरित १९७ घर आया। उसने अपने पुत्र सुदर्शन को संक्षेप में समस्त जनप्रसिद्ध लोक-व्यवहार समझाया । नारियों के दोष ढांकना चाहिये। जो चित्त में हो वही बात बोलना चाहिये। आये लोगों के प्रति दाक्षिण्य (सौजन्य ) रखना चाहिये, तथा दुष्ट वैरियों के प्रति पराक्रम प्रकट करना चाहिये। गुरुजनों के प्रति विनय और भक्ति दिखलाना चाहिये। विनय से ही लक्ष्मी और कीर्ति की प्राप्ति होती है। साधु पुरुषों की सत्य, शौच व निर्मत्सर भाव से रक्षा करनी चाहिये । मर्मी जनों में उनके अभिप्रायानुसार बताव करना चाहिये। अपना काम निकालने के लिए गधे को भी गुरु के समान मानना चाहिये। गर्वीले मनुष्यों के प्रति उनसे भी अधिक गर्जना चाहिये। पापिष्ठ जनों का संग भी त्यागना चाहिये। अपना मर्म किसी को कहना नहीं चाहिये। शरण में आये हुए जीव की रक्षा करना चाहिये। राजकुल और देवकुल की सेवा करना चाहिये। क्रोध, मान और माया का शमन करना चाहिये। कोपाधीन मनुष्य तथा मानी, बहुत मायाचारी एवं लोभाकान्त मनुष्य किसी को भी प्यारा नहीं होता। १९. राजसभा योग्य आचरण जो अपने मर्म को प्रकट नहीं करता, गुणों का प्रकाशन करता है, एवं ठीक प्रयोजनानुसार चलता है, वह दुर्लभ मनुष्य, देवों को भी प्यारा है, तब मानवों को क्यों न हो ? और भी, हे सुन्दर, नयनानन्ददायी ( वत्स ), नरपति के आगे उसकी सेवा में स्थित होते हुए निम्न बातें नहीं करना चाहिये। दूसरों को धिक्कारना, पांव पसारना, अधमिची आखों से देखना, भौहें चलाना, हाथ-पांव मोड़ना, अंगुलिया चटकाना, लोगों का उपहास करना, वक्तृता बघारना, खांसना, जम्हाई लेना, आसरा लेकर खड़े होना, केश सँवारना, अंग सजाना, दर्पण देखना, आत्मप्रशंसा करना, स्वेच्छापूर्वक बोलना, नाक फुलाना, दांत पीसना, दुष्ट क्रीडा ( कुचेष्टा ) करना, आसन खिसकाना या ठोकना, अंग मरोड़ना तथा दुष्टों की निन्दा करना। इनके अतिरिक्त और भी जो जो बातें सेवाभाव को कलंकित करनेवाली हैं, उन सब को त्यागना चाहिये। अब मैं तो बहुत से सिद्धों से व्याप्त वन में जाकर प्रवेश करता हूँ, तथा अपनी समस्त सम्पत्ति का परित्याग करता हूँ। (यह बुधजनों का नयनरूप मदन छन्द है)। इस पर सुदर्शन ने हंसकर कहा-आपके परोक्ष में मेरे इस घर में निवास करने से क्या लाभ ? २०. ऋषभदास की सुदर्शन को गृहभार सौंपकर मुनि-दीक्षा और स्वर्ग-गमन मैं भी महाकषायों को जीतनेवाला व संसार का अन्त करनेवाला सुदुर्द्धर तप करूँगा। इस पर उसके पिता ने कहा-हे पुत्र, तू तो अभी राजप्रासाद का उपभोग कर, जो इस भवन में प्रिय है। हे पुत्र, यदि मेरे समान तू भी
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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