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________________ सुदर्शन-चरित १८५ प्रसन्नकारी और प्यारा होता है। जन-मनोहारी, धवल व्यापार करनेवाली मानिनी तरूणी स्त्रियों ने घेरकर वर को मंगल कलशों से खूब स्नान कराया और बहुमूल्य भूषणों से अलंकृत किया। __५. विवाहोत्सव विवाह की लग्न आने पर वर के हाथ में सूत का कंकण बाँधा गया। सिर पर श्वेत पुष्पों का मुकुट लगाया गया, श्वेत वस्त्र पहनाए गए और चन्दन का लेप किया गया। फिर तुरंग पर चढ़ कर ऊपर छत्र लगाए हुए धीरे-धीरे जामाता मंडप में पहुँचा। तत्पश्चात् वह मातृगृह में प्रविष्ट हुआ, और अपनी प्रिया के अन्तरवस्त्र (परदे) के समीप बैठा। फिर वस्त्र (परदे) को हटाकर मुख का अवलोकन किया गया जिससे उसे अपने नेत्रों के कृतार्थ होने का फल मिला। कर में कर और दृष्टि में दृष्टि पहुँचकर चलायमान ही न होती थी, जैसे कीचड़ में फंसा हुआ ढोर ( पशु )। वर कान्ता को लेकर घर से लीला पूर्वक निकला, जैसे सरोवर से सुन्दर हाथी निकले। फिर वहाँ वेदी के मध्य में रखे जलते हुए लाल हुताश ( अग्नि ) को देखा ( साक्षी किया)। वधूवर दोनों उस वेदी के आसपास प्रदक्षिणा देने लगे, जैसे मानों गिरीन्द्र (सुमेरु) के आसपास रवि और रन्न शोभा दे रहे हों, अथवा जैसे रोहिणी और चन्द्र विराज रहे हों, अथवा जैसे बिजली और कंद ( मेघ)। उस समय सागरदत्त मन में बहुत प्रसन्न हुआ, और प्रफुल्लमुख होकर इस प्रकार बोला-यह चंपकवर्णी छोकरी (छोटी-सी ) कन्या हे कुलीन महानर, मैंने तुम्हें दी। पुनः यह कहते हुए उसने कन्या वर के हाथ में दे दी कि यह नारायण की लक्ष्मी के समान तुम्हारी सुवल्लभा होवे। दायजे में उसने प्रदीप, रतिगृह के समान रमणीक खाट ( पलंग) सुवर्ण सहित दिये। वधू-वर में काम जागृत हुआ। ( इस कडवक में मौक्तिकदाम छंद का प्रयोग किया गया है)। उन विरह से विह्वल, मत्त और आसक्त वधूवर का ज्योंही विवाह हुआ त्योंही मानों सूर्य उन्हें देखने के लिए आया और सबसे उच्च प्रदेश प्राप्त करके उस पर विराजमान हुआ। (अर्थात् मध्याह्न हुआ )। ६. मध्याह्न भोजन ( जेवनार ) तब मध्याह्न काल में नये बधूवर सुहृद् ( मित्र) और बांधवजनों सहित इन्द्रियवर्ग को आमोद देने वाला भोजन करने लगे। थाल-थाल में बहुत से व्यंजन ऐसे शोभायमान हुए जैसे आकाश के बीच नक्षत्र । मोतियों के पुंज की छवि-सहित कलम ( चावलों का) भात बनाया गया जो हरित और नीलमणियों के समान हरी मूंग की दाल से युक्त और नये कांचन के समान रस सहित घृत डालने पर ऐसा भाता था जैसे सन्ध्या की लालिमा से युक्त मृगांक ( चन्द्र )। ऐसे खाजा परोसे गये कि ज्योंही उन्हें मुख में डाला त्योंही वे दुर्जन-मैत्री के समान भग्न हुए। २४
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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