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________________ संधि ४ १. सुदर्शन का मित्र कपिल ब्राह्मण कुल, बल, प्रगुण पाण्डित्य, रूप, लक्ष्मी, निर्मलयश, आरोग्य और सौभाग्य ये सब महान् धर्म के ही फल हैं। __जिनमति के पुत्र सुदर्शन ने नगर में भ्रमण करते हुये ब्राह्मणपुत्र कपिल को देखा। कपिल गुणसमूह से निर्दोष, अतिशय रम्य, षट्कर्मशील, वेद विज्ञाता, नित्यस्नायी, श्रुत ( वेद ) की वन्दना करनेवाला, द्विजों और गुरुओं का भक्त, अग्नि का पुजारी, तिल और यव का हवन करनेवाला, चन्दन से लिप्त, गौरवर्ण, कन्धे पर त्रिसूत्र ( जनेऊ ) तथा सिर पर छत्र धारण किये, निमित्त का ज्ञाता, चित्त में दया और दमन सहित, पितृभक्त, धर्मासक्त, प्रसन्नमुख तथा स्नेहल नेत्रोंवाला था। इन सब गुणों से युक्त देखकर सुदर्शन ने उसे अपना मित्र बना लिया। वह भूषितगात्र वणिकपुत्र बड़े स्नेह से उसे अपने कंठ से लगाकर हर्ष से प्रफुल्लित होता हुआ चला। वे दोनों आगे बाजार के मार्ग पर चले जहाँ उन्होंने एक सुकुमार-शरीर बाला ( युवती ) को देखा। ( यह छंद मदनविलास नामक द्विपदी है)। जो स्वयं लक्ष्मी के समान थी, उसकी क्या उपमा दी जाय ? उसकी गति से मानों पराजित और लज्जित होकर हंस अपनी कलत्र (हंसिनियों) सहित मानस सरोवर को चले गये। २. मनोरमा-दर्शन उस सुन्दर बालिका के अरुण व अतिकोमल चरणों को देखकर ही तो लालकमल जल में प्रविष्ट हो गये हैं। उसी के पैरों के नखरूपी मणियों से विषण्ण-चित्त और नीरस ( हतोत्साह ) होकर नक्षत्र आकाश में जाकर ठहरे हैं। उसके गुल्फों की गूढ़ता से विशेष मति-विशाल बृहस्पति भी उपहासित हुआ है। उसकी सुन्दर जंघाओं से तिरस्कृत होकर कदली वृक्ष निःसार होकर रह गया। उसके नितम्ब-बिम्ब को न पाकर ही तो रतिकान्त कामदेव ने अपने अंग को समाप्त कर डाला। उसकी सुन्दर त्रिवली की शोभा को न पहुँचकर जल की तरंगें अपने को सौ टुकड़े करके चली जाती हैं। उसकी नाभि की गंभीरता से पराजित होकर गंगा का प्रावतें, भ्रमण करता हुआ स्थिर नहीं हो पाता। उसके मध्य अर्थात् कटिभाग को इतना कृश देखकर सिंह मानों तपस्या करने का भाव चित्त में लेकर पर्वत की गुफा में चला गया। उसकी सुन्दर रोमावली से पराजित होकर मानों लज्जित हुई नागिनी बिल में प्रवेश करती है। उसकी लोहमयी काली रोमावलि की यदि ब्रह्मा रचना न करता, तो उसके मनोहर विशाल स्तनों के भार से उसका मध्यभाग ( कटि) अवश्य ही भग्न हो जाता।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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