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________________ १७४ नयनन्दि विरचित [ ३. १२ ये रंक नयन अपने प्रभु के दर्शन का पूरा सुख न लूट लें। किसी को दर्शनमात्र से ही रति-सुख मिल गया, फिर पुनरुक्तार्थ स्पर्शन की क्या आवश्यकता रही ? कोई कहती - हे मनोहर, मेरे आभरण ले ले, और मुझ बुलाती हुई को उत्तर दे । कोई बचन रहित इतना ही करती थी कि पवन से आहत कदली के समान थर्राती थी । कोई कहती हे निर्विकार, विरह से मारी जानेवाली मेरी एक बार तो रक्षा करे । मैं असे तपाई हुई शिला के समान तप्त हूँ, और तू हे मित्र, परोपकार के समान शीतल है। कोई अपने आभरणों को उल्टे पहनने लगीं व दर्पण में अपने प्रतिबिंब को तिलक देने लगी । मैं उसी का वर्णन करता हूँ और उसी को बड़ा मानता हूँ जिसे देखकर विरक्ति न हो, और जो रति के लोभी मुग्ध नेत्रों को मछली की उछाल प्रदान करे । १२. नारियों का अनुराग । सुदर्शन को अपने सम्मुख देखकर किसी ने अपने पति का साथ छोड़ दिया । कोई अपने नेत्रों की चंचल झलकें छोड़ती हुई लज्जा से भीत के पीछे छिपकर खड़ी हो गई । कोई बहुमूल्य पयोधर व नाभिदेश प्रकट करती व अपने समस्त - शरीर को मोड़ती थी कोई बालिका मदन के परवश होकर कहती- मैं विरह की ज्वाला को सहन नहीं कर सकती। अनजाने में, हे माता, मुझ विरहातुरा ने अपना हृदय एक हृदयहीन को दे डाला। क्या मैंने अन्य भव में श्रेष्ठ तप संचय नहीं किया जिससे दैव ने मुझे यह पति प्रदान न किया ? कोई अपने खिसके हुए वस्त्र का तो ध्यान न रख पाई, किन्तु दूसरी विरहिणी त्रियों को धैर्य बँधाने लगी । सच ही है कि उन्मार्ग से चलता हुआ मनुष्य अपने पैर के तलवे की जलन को नहीं देखता । जिस प्रकार जहाँ प्रिय का मुख है वहाँ मन जा रहा है, उसी प्रकार यदि किसी उपाय से वहाँ हाथ भी पहुँच जाते तो वह जल्दी से आलिंगन कर लेती । जब सभी लोग निरंकुश हों तो निग्रह कौन करे ? हे शुभमति राजन् ( श्रेणिक ), सेन्दित जनसमूह युक्त चंपापुर में भ्रमण करनेवाले उस वणिकपुत्र से अनुरक्त न हुई हो, ऐसी कोई स्त्री नहीं थी । इति माणिक्यनन्दि त्रैविद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा रचित पंचणमोकार के फल को प्रकाशित करनेवाले सुदर्शनचरित में सुदर्शन का जन्म, सरस बालक्रीड़ा, पुनः कलासमूह-शिक्षण, मनोभिराम यौवन, समस्त पुर सुन्दरियों में उत्पन्न क्षोभ, काम के लक्षण, इनका वर्णन करनेवाली तृतीय संधि समाप्त | संधि ॥ ३ ॥
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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