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________________ ८.५.२] सुदंसणचरित ७५ गाथाष्टकं अब्बो जेणोवाएँ' सूहयो एइ तेण आणेहि। धरि धरिणिण णिवडती विरहमारि किं णिहुरा होहि ॥१॥ ता धीरत्तं बुद्धी माणो लज्जा भओ सुमज्जाय । विहिलंघलतणुकरणो मयणो ण वियंभए जाम ॥२।। (पथ्या) विरयइ डाझे असणेण जसु दंसणेण पासेओ। तस्सोवरि' सुविरत्ती माए इह कस्स णिव्यहई ।।३।। (परपथ्या) कोमलबाहुलयालिंगणेण तं सोक्खं जइ वि णउ हवइ इह तो वि सुवल्लहदसणेण किं किं ण पजत्तं ॥४॥ (विपुला) सो को बिहोइ पिययमु जेण विणा रइ ण कहि वि पडिहाई। जिह जिहं संबोहिजइ तिह तिह" ण विरुञ्चए" हिययं ॥५॥ (पथ्या) जेणायण्णियमित्तेण मा हिययम्मि होइ संतोसो। तेण समासंबंध को जागइ केत्तियं सोक्खं ॥६। (परपथ्या) अमिलताण वि दीसइ णेहो दूरे वि संठियाणं पि। जइ वि हु रवि गयणयले इह तह वि हु लहइ सुहु णलिणी ॥७॥ (पथ्या) अभयावयणं णिसुणेवि पंडिया भणइ पुत्ति जं किं पि । कीरइ कन्न' परिभाविऊणतं सव्वं सुंदर हाई" ।।८॥ (विपुला) घत्ता-दीहु सुहावहु चिंतियः अञ्चग्गलु ण बोलिज्जइ। पच्छुत्तावःजं जगई तं किं पि कन्जु णऊ किजह ॥४॥ जाइकुलुब्भवाह मुफत्तिहः एक्कु जि कंतु होइ कुलत्तिहे। देवहिँ बंभणेहिँ जो दिण्णउ धणविहीणु बहुरोयकिलिण्णउ । ४. १ जेणोवएण; ग जेणेवारण । २ ख प्रारमेकिः। ३ क धरि धरणि वडंती। ४ क ख विहिलंत्रण ।। ५ ख वह सोवरि। ६ ख णिध्वडइ; ग घ वियडइ। ७ क इह णयणवल्लहदंससेश के कं। ८ क पडिहासे18 ख जहं जहं। १० ख तहं तहं । ११ क विरचए।-१२ क माइ; ख माय । १३ क मीलेता ण। १४ क लज्ज । १५ ख ग घ ते सुंदर होइ। १६ क दिष्ट ठु। १७ ख चित्तियइ। १८ ख बोलु ण । १९ क जं जइ। ५. १ ख कुलभवेहि। २ ख जं।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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