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________________ ५४ गयणदिविरइयड सव्वावयव सलक्खणिय बुहथुणिय। होइ गरिंदहा पाणपिय णाइँ सिय। लहइ जाण पाण धय मत्तगय । वरतुरंग संदणपवर भडणियर। विविहकुसुमफलदलघणय उववणय। करइ कील सहुँ सहयरिहिं मणहरिहिं। इय रयणमाल पद्धडिय पायडिय। घत्ता-सुहसय" अँजिवि वइरायवंत तउ पालइ। अच्छउ इयरही इंदहा इंदत्तणु ढालई ॥१४॥ कुगुरुकुदेवभत्तिओ मयपत्तिओ णिसि असंति जाओ। कंचाइणिसरिच्छओ दुण्णिरिक्खओ होति मरेवि ताओ ॥ आरणालं ।। रयभुरकुंडिउ रंडिउ मुंडिउ । चेडिउ दासिउ छिवरणासिउ। विसरिसभालउ बुडियकवोलउ। चुंधलणेत्त दीहरदंतउ। हड्डकरालउ इंगलकालउ। लंबिरथणियउ असुहावणियउ। कुंटिउ मंटिउ मोट्टिउ छोट्रिउ । बहिरिउ अंधिउ अइदुग्गंधिउ। पेसणसारित विप्पियगारिउ । हीणउ दीणउ कम्मे रीणउ । मइलकुचेलिउ कलहणसीलिउ। १४. ८ क ग घ ए। ९ क ग घ इय णामें। १० ख रयणावलिय। ११ ख सुहसिरि। १२ ख ग टालइ । १५. १ ख भत्तउ। २ क पत्तिमो ख पमत्तउ। ३ ख असंतु। ४ क चिब्बिर । ५ क चडिय; ख बुडिय वोलिउ घ चुडिय। ६ क णेत्तिउ। ७ क दंतिउ। ८ क कुंठिउ मंठिउ घ मंठिउ। ६ क हीणिउ दीणिउ कम्में रीणिउ ।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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