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________________ ६. १४.७] सुदंसणचरिउ घत्ता-इय जाणेविणु जे रयणिहि भोयणु सेसहि । दोसविवज्जिय ते दिणयरु व्व उन्भासहि ।।१२।। १३ संपुण्णंगमणहरा विमलजसहरा कमलबंधु तेया। विहुरसहासवज्जिया' तियसपुजिया इंदउठवमेया ॥ आरणालं ॥ सुंदरसरीर सुरगिरिसुधीर भीसणसमरंगणे एकवीर । अखलियपयाव गंभीरराव तइलोकपसिद्ध महाणुभाव। णियअरिकयंत रिद्धिए महंत - - मयरद्धयव्य सोहग्गवंत । साउहभडेहि दप्पुब्भडेहि सेविजहि जयसिरिलंपडेहि। मयघुम्मिरेहि गइमंथरेहि आरुहहि सलक्खणगयवरेहि। तोसियसुरेहिँ भाभासुरेहिँ विजिजहि विविहहिँ चामरेहिँ । जणमणहरेहिँ सुस्सरसरेहिँ गाइजहिँ वरगायणसएहि । तहिँ भामिणीहिँ मणभावणीहिँ माणिजहिँ गयवरगामिणीहिँ । .... घत्ता-अवरु वि जं जं इह किं पि वि दीसइ गयमलु । जाणसु सुंदर तं तं जि अणथमियही फलु ॥१३॥ १४ जा जुवइ वि बहुरसं' चयइ जह विसं जामिणीहिँ भत्तं । सा पावइ कुलं वरं णाइँ अंबरं णिम्मलं पवित्तं ।। आरणालं ॥ कुडिलालय ससिवयण मिगणयण । णिद्धदसण तंबिरअहर महुरसर। किसलयभुय घणथणकलस मझ किस। गुरुणियंब जणजणियरइ हंसगइ। अहिणववेल्लि व हलहलिय कोमलिय। १२. ८ क वहिं । ६ क दिणयरु क वउ भासहि । १३. १ ग घ विहुरुर क ग घ मयरद्धवंत। ३ घ वरनरवरेहि । ४ ख मणगामणीहि । ५ घ इह तं। ६ क जियहो (टि. जीवस्य)। १४. १ क ग घ विविह। २ ख भुत्तं । ३ क यंबर। ४ क णी। ५ क सिद्ध। ६ ख भुय लखणजुन्न । ७ क मझि किस ।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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