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________________ द्वितीयोऽध्यायः अर्थात् न पहिचान कर दूसरे को दूसरा कहे, उसको यमराज का अतिथि (मरणासन्न) समझे ॥ ४ ॥ चपलां विमले व्योम्नि मेघ वापि विलोकयेत् ।। सूर्याचन्द्रौ प्रभाशून्यौ ब्रवन् मरणमृच्छति ॥ ५ ॥ जो रोगी स्वच्छ आकाश में चमकती हुई बिजली को देखे, अथवा स्वच्छ आकाश में मेघाडम्बर-घोर बादलों को देखे, अथवा सूर्य और चन्द्रमा को प्रभाशून्य देखे और कहे, उसे समझो कि वह थोड़े समय का अतिथि, मरणासन्न है ॥ ५॥ मृण्मयीमिव पात्रीं यः कृष्णवस्त्रसमावृताम् । प्रत्यक्षमिव पश्येत्तां न स जीवति चाधिकम् ॥ ६॥ काले वस्त्रसे ढकी हुई मिट्टीकी बनी हुई पात्री (थाली गगरी आदि) को प्रत्यक्ष की तरह देखे, वह रोगी अधिक समय तक नहीं जीवित रहता, तात्पर्य यह कि वह कहे कि यह मट्टी की थाली आदि काले वस्त्र से क्यों ढांक कर रक्खी है, नहीं है, तुम्हें भ्रम है-ऐसा कहने पर कहे कि यह क्या है, सामने तो साफ स्पष्ट ढकी है--ऐसा कहे; वह रोगी अधिक समय तक नहीं जीता है ॥ ६ ॥ अपर्वणि गतं दृष्ट्वा सूर्याचन्द्रमसोहम् । व्याधितोऽव्याधितो वापि मासमानं स जीवति ॥ ७॥ - अपर्व में अर्थात् अमावास्या अथवा पूर्णिमा तिथि के विना सूर्य अथवा चन्द्रमा के ग्रहण को देखे, तात्पर्य यह कि सूर्यग्रहण अथवा चन्द्रग्रहण का समय योग के न होने पर भी उसके अभाव में सूर्यग्रहण अथवा चन्द्रग्रहण को देखे, वह रुग्ण-बीमार-हो अथवा ब्याधि रहित स्वस्थ तन्दुरुस्त हो; परंतु अपर्व में देखने के कारण केवल एक मास जीवित रहता है ॥ ७॥
SR No.032178
Book TitleRogimrutyuvigyanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuraprasad Dikshit
PublisherMathuraprasad Dikshit
Publication Year1966
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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