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________________ अथ द्वितीयोऽध्यायः य आतुरोऽम्बरं सान्द्रं भूमिं शून्यां विलोकयेत् । उभयं वाऽन्यथा पश्येत् होरामात्रं स जीवति ॥ १ ॥ जो आतुर ( अत्यधिक बीमार रोगी) आकाश को घना किसी पदार्थ से व्याप्त देखे, अथवा पृथ्वी को शून्य आकाश की तरह खाली देखे, वह ढाई घंटे तक जीयेगा ॥ १ ॥ दीप्तदीपं प्रभाशून्यं पश्येद्वा व्योम्नि मारुतम् । स्थितं ब्रूयाद् गतः कस्मात् मुहूर्तात् स त्रजिष्यति ॥ २॥ जो रोगी जलते हुए दीप को प्रभाशून्य बुझा हुआ देखे, अथवा आकाश में वायु - आँधी की तरह अत्यन्त वायु को देखे, यद्वा सन्मुख स्थित मनुष्य को कहे कि क्यों चला गया, वह रोगी मुहूर्तमात्र जीवेगा ॥ २ ॥ शुद्धे जले वदेज्जालं सजालं विमलं वदेत् । प्रत्यक्षं प्रेतरक्षांसि पश्यन् याति यमालयम् ॥ ३ ॥ जो रोगी शुद्ध जल में जाला है, गँदला यह जल है ऐसा कहे, और गँदले जल को स्वच्छ कहे' जो रोगी प्रत्यक्ष सामने प्रेत, राक्षस आदि को देखे, वह बहुत जल्द मृत्यु को प्राप्त होता है; उसे निश्चित मरा हुआ समझे ॥ ३ ॥ प्रकृतिस्थं वदेद् वह्नि कृष्णं शुक्लं च निष्प्रभम् । तथाऽन्यं चान्यथा पश्येत् तं विद्यात् शमनातिथिम् ||४|| प्रकृतिस्थ स्पष्ट जलती हुई अग्नि को कृष्ण बुझी हुई श्याम वर्ण की अथवा निष्प्रभ सफेद कहे, अथवा अन्य मनुष्य को अन्य कहे
SR No.032178
Book TitleRogimrutyuvigyanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuraprasad Dikshit
PublisherMathuraprasad Dikshit
Publication Year1966
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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