SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ रोगिमृत्युविज्ञाने . रात्रौ भानुं दिवा चन्द्रमनग्नौ धुममुत्थितम् । प्रभाविरहितं रात्रौ वह्निं दृष्ट्वा म्रियेत सः ॥८॥ जो रोगी रात्रि में सूर्य को देखे और दिन में चन्द्रमा के न रहने पर भी रात्रि के समान चमकते हुये चन्द्रमा को देखे, आग के बिना खाली स्वच्छ पृथ्वी से उठते हुये धुआं को देखे, और रात्रि में जलती हुई अग्नि को प्रभारहित बुझी हुई कोयला के रूप में देखे; वह जल्दी ही दो चार घंटों में मर जायगा ॥ ८ ॥ विवर्णानि विरूपाणि निनिमित्तान्यनेकशः । गतायुषो निरीक्षन्ते नरा रूपाणि संमुखम् ॥९॥ विना कारण के अनेक प्रकार के विभिन्न वर्ण के काले पीले लाल वर्ण के विरूप कटे बड़े भारी डरावने रूपों को प्रत्यक्ष वे मनुष्य देखते हैं, जिनकी आयु समाप्त हो गयी है। अर्थात् जिसको सामने भयावह अनेक रूप वाले पुरुष देख पड़ें, वह जल्द ही उसी दिन मर जायगा ॥ ६ ॥ अदृश्यान् देवयक्षादीन् पश्येदम्बरसंस्थितान् । स्थितान् स्वकान्न पश्येच होरामानं स जीवति ॥ १०॥ जो रोगी अदृश्य स्वरूपवाले देवता-यक्ष-राक्षस-गन्धर्वादिकों को सामने आकाश में ठहरे हुये देखे और सामने स्थित विद्यमान अपने सगे भाई पुत्र कलत्र आदि इष्ट मित्रों को न देखे; वह होरामात्र (दो ढाई घंटे मात्र ) जीता रहता है ।। १० ॥ शब्दं शृणोति यो व्योनि पार्श्वस्थं न शृणोति यः। तावुभौ यमलोकस्थौ विज्ञेयो सुचिकित्सकैः ॥११॥ जो आकाश में विद्यमान शब्द को सुनता है, अथवा जो पास में ही शब्द को नहीं सुनता, उन दोनों को उत्तम चिकित्सक-सवैद्य
SR No.032178
Book TitleRogimrutyuvigyanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuraprasad Dikshit
PublisherMathuraprasad Dikshit
Publication Year1966
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy