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________________ १६] मृत्यु और परलोक यात्रा (द) सृष्टि रचना क्रम ___ सृष्टि की मूल सत्ता केन्द्र में है। प्रकृति उस पर आवरण है। यही असत् है, माया है। ईश्वर से ही प्रकृति का विकास होता है। यह प्रकृति उसके विकास की प्रथम अवस्था है। इसी से रूपों की उत्पत्ति होती है जो इसकी द्वितीय अवस्था है। तीसरी अवस्था में जाकर स्व-संवेदन ('मैं' पन) का विकास होता है। रूपों का विकास होने पर वह ईश्वर जगत् का व्यवस्थापक बन जाता है। इस व्यवस्था में देवगण भाग लेते हैं। ईश्वर की सत्ता प्रत्येक के केन्द्र में समाई रहती है जो इन रूपों का संचालन एवं नियमन करती है। अध्यात्म के अनुसार पदार्थ भी सजीव ही हैं किन्तु उनकी चेतना तुरीयावस्था में है। रूपों की स्थिरता होने पर वनस्पति वर्ग का विकास होता है। इसके बाद पशु बर्ग व मनुष्य वर्ग का विकास होता है । • सृष्टि रचना काल में अपरा प्रकृति से सर्व प्रथम आकाश उत्पन्न होता है। आकाश से वायु, वायु से तेज, तेज से जल तथा जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है । पृथ्वी से खनिज, खनिज से वनस्पति और वनस्पति से जीव उत्पन्न होते हैं। दूसरी ओर उसकी परा प्रकृति (चैतन्य प्रकृति) से बुद्धि, अहंकार, मन, चित्त, इन्द्रियाँ आदि उत्पन्न होती हैं । यही इस जड़-चेतनात्मक जगत् का स्वरूप है। इन दोनों प्रकृतियों के संयोग से ही मनुष्य के स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर का निर्माण होता है। इस प्रकार सृष्टि के समस्त दृश्य एवं अदृश्य पदार्थों का निर्माण उसी परब्रह्म की अभिव्यक्ति है। उस चैतन्य पर ज्यों-ज्यों प्रकृति के आवरण चढ़ते जाते हैं त्यों-त्यों उनका घनत्व बढ़ता जाता है। इसी घनत्व के आधार पर सात लोक निर्मित होते हैं जिनमें सबसे स्थूल अधिक घनत्व वाला "भू लोक" है तथा सबसे सूक्ष्म "ब्रह्मलोक" है जो जीवात्मा का निवास स्थान
SR No.032177
Book TitleMrutyu Aur Parlok Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Dashora
PublisherRandhir Book Sales
Publication Year1992
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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