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________________ शरीरको चिरकाल से सेवन किया अब याका नाश होते, श्रर नवीन शरीरका लाभ होते भय कैसे करो हो । भय करना उचित नाहीं ॥ · भावार्थ - जिस शरीरको बहुत काल भोग जीर्ण कर दिया पर सार रहित, बल रहित होय गया । अब नवीन उज्वल देह धारण करने का अवसर / पाया, तब भय कैसे करो हो । यह जीर्ण देह तो विनशेहीगो । इसमें ममता धारि मरण बिगाड़ दुर्गतिका कारण कर्मबन्ध मत करो || स्वर्गादेत्य पवित्र निर्मल कुले संस्मर्यमाया जन, दत्वा भक्ति विधायिनां बहुविधं वांछानुरूपंफलं । भुक्त्वा भोगमहनिशपरकृतं स्थित्वा क्षणं मंडले, पात्रावेश विसर्जनामिव मृति संतो लभंते स्वतः ॥ १८ ॥ 18. Having fine death one sees light In good family or in the heaven He fulfills the desire 's flightOf his near kith and kin. Enjoying good luck he sees off This land of the mortal kingdom Like an actor, akin to putting off Disguise, acquires the True freedom. पा शुभ मरण, स्वर्ग में ही जन्म पूत सत्कुल में लेता । निज बन्धु आदि जनको बहुबिधि, वाञ्छानुरूप हैं फल देता ॥ फिर पूर्व सु-कृत फल भोग भोग, यह क्षिति-मण्डल से है जाता । वेश विसर्जनवत् अभिनेता यह मोक्ष स्वतः ही है पाता ॥ (20)
SR No.032175
Book TitleMrutyu Mahotsav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadasukh Das, Virendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishva Jain Mission
Publication Year1958
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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