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________________ भावार्थ-हे प्रात्मन् जो तुमने इतने कालतक इन्द्रियोंके विषयों में वांछारहित होय अनशनादि तप किया है, सो अन्तकालमें आहारादिक का त्याग सहित, संयम सहित, देहकी ममता रहित, समाधिमरणके अर्थ किया है । पर जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्यागादि व्रत धारण किये हैं, सो भी समस्त देहादिक परिग्रहमें ममताका त्यागकर, समस्त मनवचनकायसे प्रारम्भ आदि परिग्रह त्यागकर, समस्त शत्र मित्र में वैर, राग छांडिकर, उपसर्गमें धैर्यता धारणकर, अपना 'एक ज्ञान स्वभावको अवलंबनकर, समाधिमरणके अर्थ ही किये हैं। पर जो समस्त श्रतज्ञानका पठन किया है सोहू क्लेशरहित, धर्मध्यान सहित, देहादिक से भिन्न आपको जान, भय रहित, समाधिमरणके निमित्त ही विद्याका पाराधनाकर काल व्यतीत किया है। अर अब मरणका अवसरमें हू ममता, भय, राग, द्वेष, कायरता दीनता नहीं छोडूगा तो इतने काल तप कीने, ब्रत पाले, श्रुतका अध्ययन किया सो समस्त निरर्थक होय। ताते इस मरणके अवसरमें कदाचित सावधानी मत विगाड़ो॥ अतिपरिचितेष्व ज्ञानवे भवेत् प्रीतिरिति हि जनवादः । चिरतर शरीर नाशे नवतर लाभे च किं भीरुः ॥१७॥ 17. Worldly saying is, 'Interest in new, No interest in old acquaintance' Old body's ruin, birth of new, Why do fear, O life-substance ? अति परिचित होते रुचि घटती, . नव रुचि होती यह लोक कथन ! चिरतर शरीर का नाश, लाभ नव तन का, फिर क्यों भय रे ! मन ? ॥१७॥ अर्थ-लोकनिका ऐसा कहना है कि जिसवस्तुसू अति परिचय, अति सेवन होजाय तिसमें अवज्ञा, अनादर होजाय है, रुचि घट जाय है । अरनवीन संगममें प्रीति होय है। यह बात प्रसिद्ध है। अर हे जीव तू इस (१६)
SR No.032175
Book TitleMrutyu Mahotsav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadasukh Das, Virendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishva Jain Mission
Publication Year1958
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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