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________________ जो आर्त रहित सशान्ति मरता, - पाता न त्रियंच नरक गति वह । औ' धर्म ध्यान अनशन पूर्वक, .. जो मरता सुरपति होता वह ॥१५॥ अर्थ-जाके मरणका अवसरमें पार्त जो दुःखरूप परिणाम न होय अर शांतिमान कहिये राग, द्वापरहित, समभावरूप चित्तहोय सो पुरुष मरण करि नारकी नहीं होय, तिथंच नहीं होय। पर जो धर्मध्यान सहित, अनशनव्रत धारण करके मरे तो स्वर्गलोकमें इन्द्र होय तथा महद्धिक देव होय, अन्य पर्याय नहीं पावे, ऐसा नियम है ।। भावार्थ-यह उत्तम मरणके अवसरको पाय करके पाराधना सहित मरणमें यत्न करो। पर मरण पावते भयभीत होय, परिग्रहमें ममत्वधार, आर्तपरिणामसू मरि कुगतिमें मत जावो। यह अवसर अनन्त भवोंमें नहीं मिलेगा। और यह मरण छोड़ेगा नहीं। ताते सावधान होय धर्मध्यान सहित धैर्य धारणकर देहका त्याग करो। तप्तस्य तपश्चापि पालितस्य व्रतस्य च । पठितस्य श्रुतस्यापि फलंमृत्युं समाधिना ।।१६।। 16. Grappling all troubles of penance, Following vows and reading scriptures Daily, regularly and not perchance All results in joyful departure. सन्ताप तपस्या का सहना, फिर पालन करना नित ब्रत का । स्वाध्याय सदा नियमित करना, है सु-फल समाधि मरण सब का ॥१६॥ अर्थ-तपका संताप भोगना, ब्रतका पालना, श्रुतका अभ्यास करना यह संपूर्ण आत्माकी सावधानी सहित मरण करने अर्थ है । (१८)
SR No.032175
Book TitleMrutyu Mahotsav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadasukh Das, Virendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishva Jain Mission
Publication Year1958
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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