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________________ भावार्थ-मिथ्यादर्शनके उदयसे जो आत्मज्ञानकर रहित, देहमें ही आपा माननेवाले, और खाने-पीने काम-भोगादिक इन्द्रियनिके विषयों में ही सुख माननेवाले बहिरात्मा हैं। तिनके तो अपना मरण होना बड़ा 'भयके अथि है। जो हाय मेरा नाश भया फेर खाना-पीना कहां। नहीं जानिये मेरे पीछे कहा होयगा । अब यह देखना मिलना, कुटुम्बका समागम सब गया। अब कौनका शरण गहण करूं, कैसे जीऊं ऐसे महा संक्लेशकर मरे हैं । पर जो आत्मज्ञानी हैं तिनके मृत्यु आये ऐसा विचार उपजे है जो मैं देहरूप बन्दीगृह में पराधीन पड़ाहुवा, इन्द्रियोंके विषयोंकी चाहकी दाह करि, अर मिलेहुवे विषयोंमे अतृप्ताकरि, अर नित्यही क्ष धा, तृषा, शीत, उष्ण, रोगोंसे उपजी महावेदनाकरि, एक क्षण हू थिरता नहीं पाई। महान् दुःख, पराधीनता, अपमान घोरवेदना, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग भोगता महाक्लेशसे काल व्यतीत किया। अब ऐसे क्लेशसे छु डाय, पराधीनतारहित अनन्तसुखस्वरूप जन्ममरणरहित अविनाशी स्थान को प्राप्त करानेवाला यह मरणका अवसर पाया है। यह मरण महासुख का देनेवाला अत्यंत उपकारक है । पर इससे विपरीत संसारवास केवल दुःखरूप है । इसमें एक समाधि मरण ही शरण है । और कहीं ठिकाना नहीं है। इस बिना चारों गतिमें महा त्रास भोगी है। अब संसारवाससे अनि विरक्त मैं समाधिमरणको ग्रहण करूं हूँ ॥ पुराधीशो यदा यांति सुकृतस्यबुभुत्सयां । तथा सौवार्यतेकेन प्रपंचपंच भौत्तिकै ॥११॥ For previous good deed's enjoyments When to next world travels soul The prolixities of five elementsHow can hinder in way of goal ? (१२)
SR No.032175
Book TitleMrutyu Mahotsav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadasukh Das, Virendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishva Jain Mission
Publication Year1958
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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