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________________ देह सो विनशेगा। मैं ज्ञानमई अमूर्तीक प्रात्मा, मेरा नाश कदाचित नहीं होय । ये क्षुधा, तृषा, वात-पित्त, कफादि रोगमय वेदना पुद्गलके हैं । मैं इनका ज्ञाता हूं। मैं यामें अहङ्कार वृथा करूं हूँ। इस शरीरके अंर मेरे एक क्षेत्र में तिष्ठने रूप अवगाह है। यथापि मेरा रूप ज्ञाता है, शरीर जड़ है। मैं अमर्तीक, देह मर्तीक है। मैं अखण्ड हं. शरीर अनेक परमागुनोंका पिंड है । मैं अविनाशी हैं, देह विनाशीक है। अब इस देहमें जो रोग तथा क्ष धादि उपजे तिसका ज्ञाताही रहना, क्योंकि मेरा तो ज्ञायक स्वभाव है। परमें ममत्वकरना सोही अज्ञान है, मिथ्यात्व है । पर जैसे एक मकानको छोड़ अन्य मकानमें प्रवेशकरे, तैसे मेरे शुभ अशुभ भावनिकरि उपजाया कर्म करि रच्या अन्य देहमें मेरा जाना है। इसमें मेरा स्वरूपका नाश नहीं । अतः निश्चयकर विचारिये तो मरणका भय कौनके होय ॥ संसाराशक्त चित्तानां मृत्यु त्यै भवेन्नृणां । मोदायते पुनःसोऽपि ज्ञानवैराग्यवासिनां ॥१०॥ 10. Who is addicted with passion To world, for him, death is fear, But to a sage or a wise person, It is for good and for pleasure. मन से आसक्त जगत में जो, है मृत्यु भीति के हित उनको । लेकिन है वही हर्ष के हित, . ज्ञानी-वैराग्य वासियों को ॥१०॥ अर्थ-संसारमें जिनका चित्त मासक्त है, अपने रूपको जो जाने नहीं तिनके मृत्यु होना भयके अथि है। पर जो निज स्वरूपके ज्ञाता हैं अर संसारसे विरागी हैं तिनके तो मृत्यु हर्षके अथि है ।। ...
SR No.032175
Book TitleMrutyu Mahotsav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadasukh Das, Virendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishva Jain Mission
Publication Year1958
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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