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________________ १४४ :: परमसखा मृत्यु उसे चाहिए कि वह अपना पक्षपात स्पष्ट शब्दों में जाहिर करे और नवोदित सुधारक पक्ष को मजबूत करे। __ एक बात और सोचने लायक है। पुराने लोग मानते थे कि अपनी जायदाद अपने लिए और अपनों के लिए ही है। ऐसे लोग अपने इच्छा-पत्र में अपने बालबच्चों का, सगे-सम्बन्धियों का या अपनी पीढ़ी के भागीदारों का अथवा जातिवालों का अधिकार हो मान्य रखते थे। मठपति अपने शिष्य-शागिर्दो को अपना उत्तराधिकारी बनाते थे । इससे ज्यादा व्यापक दृष्टि रही तो वह दयाधर्म या दानधर्म के रूप में प्रकट होती थी। __ऐसे लोगों को अब समझना चाहिए कि पुत्र, शिष्य या सगेसंबंधी आदि के लिए आवश्यकता से अधिक दे रखना, उनका अपमान करना है। उनके पुरुषार्थ और पराक्रम के बारे में हमें संदेह रहता है, तभी तो उनको अनहद जायदाद देते हैं। इससे बढ़कर अपमान कौन-सा हो सकता है ? अपने पंगु, रोगग्रस्त जराजर्जरित और बिल्कुल असहाय, ऐसे दयापात्र रिश्तेदारों के लिए जरूरी प्रबन्ध करना अलग चीज है और सिर्फ अपने रिश्तेदार होने के नाते अपनी सारी जायदाद उन्हीं में बांट देना, दूसरी बात है। इन रिश्तेदारों में जो छोटे बालक हैं, उनकी परवरिश की, और उनकी शिक्षा की कुछ-न-कुछ व्यवस्था कर रखना उचित है । बहुत बूढ़े और बीमार लोगों का कुछ प्रबन्ध कर सकें तो बुरा नहीं, लेकिन हम इस विश्वास को न खो बैठे कि आखिरो अंजाम में हरेक व्यक्ति का मददगार समाज है। जो कोई भी व्यवस्था हम करें, उसकी बुनियाद में समाज की सद्बुद्धि पर और ईश्वर की रचना पर विश्वास प्रकट होना चाहिए। युगधर्म कहता है कि हमारी हस्ती, हमारा जीवन, उसका
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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