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________________ ध्यानशतक ८ ध्यानशतक में धर्मध्यान के ध्याताओं का उल्लेख करने के अनन्तर यह कहा गया है कि ये ही घमंध्यान के ध्याता अतिशय प्रशस्त संहनन से युक्त व पूर्वश्रुत के धारक होते हुए पूर्व के दो शुक्लध्यानों के भी ध्याता होते हैं ( ६३-६४ ) | योगशास्त्र में इसे कुछ स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि प्रथम संहनन से युक्त पूर्वश्रुत के ज्ञाता शुक्लध्यान के करने में समर्थ होते हैं । कारण यह कि हीन बलवालों का इन विषयों के वशीभूत होने से चूंकि स्थिरता को प्राप्त नहीं होता, इसीलिए वे शुक्लध्यान के अधिकारी नहीं हैं ( ११, २-३ ) । लगभग यही अभिप्राय तत्त्वानुशासन ( ३५-३६) और ज्ञानार्णव में भी प्रगट किया गया है । इस प्रसंग से सम्बन्धित ज्ञानार्णव और योगशास्त्र के श्लोकों की समानता देखने योग्य है— चलत्येवाल्पसत्वानां क्रियमाणमपि स्थिरम् । चेतः शरीरिणां शश्वद् विषयैर्व्याकुलीकृतम् ॥ ज्ञाना. ५, पृ. ४२५, न स्वामित्वमतः शुक्ले विद्यतेऽत्यल्पचेतसाम् । श्राद्यसंहननस्यैव तत् प्रणीतं पुरातनैः ॥ ज्ञाना. ६, पृ. ४२५. ७२ [] संहनना वालं पूर्ववेदिनः कर्तुम् । स्थिरतां न याति चित्तं कथमपि यत् स्वल्पसत्त्वानाम् ॥ धत्ते न खलु स्वास्थ्यं व्याकुलितं तनुमतां मनोविषयैः । शुक्लध्याने तस्मान्नास्त्यधिकारोऽल्पसा राणाम् ॥ यो. शा. ११, २- ३. यहां ज्ञानार्णव में उपयुक्त 'प्रत्यल्पचेतसाम्' के समकक्ष जो योगशास्त्र में 'स्वल्प सत्त्वानाम् ' पद प्रयुक्त हुआ है वह भाव को अधिक स्पष्ट कर देता है । इस प्रकार ध्यानशतक के साथ योगशास्त्र की समानता व असमानता को देखकर यह निश्चित प्रतीत होता है कि प्रा. हेमचन्द्र ने उस ध्यानशतक को हृदयंगम करके उससे यथेच्छ विषय को ग्रहण किया है और उसका उपयोग अपनी रुचि के अनुसार योगशास्त्र की रचना में किया है । पर विषयविवेचन की शैली उनकी ध्यानशतककार से भिन्न रही है । टीका व टीकाकार हरिभद्र सूरि टीका - प्रस्तुत ग्रन्थ में मूल के साथ जो संस्कृत टीका मुद्रित है वह बहुश्रुत विद्वान् प्रसिद्ध हरिभद्रसूरि के द्वारा रची गई है। टीका यद्यपि संक्षिप्त है फिर भी शब्दार्थ का बोध कराते हुए मूल ग्रन्थ के भाव को भी उसमें स्पष्ट किया गया है। साथ ही वहां यथाप्रसंग अनेक प्राचीन ग्रन्थों के जो प्रमाण के रूप में उद्धरण दिये गये हैं उनसे भावावबोध अधिक हो जाता है। टीकाकार ने जो कुछ स्थलों पर व्याख्याविषयक मतभेदों की सूचना की है' उससे ज्ञात होता है कि इस टीका के पूर्व भी अन्य एक दो टीकायें रची जा चुकी हैं, पर वे उपलब्ध नहीं हैं । टीकाकार के सामने ग्रन्थगत कुछ पाठभेद भी रहे हैं, जिनका निर्देश उन्होंने यथास्थान अपनी इस टीका में कर भी दिया है' । हरिभद्र सूरि-ये जन्मना वेदानुयायी ब्राह्मण थे । निवासस्थान उनका चित्रकूट रहा है । वे तर्कणाशील विद्वान् थे । उन्होंने वैदिक सम्प्रदाय के अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के अध्ययन के साथ इतर दर्शनों याकिनी - महत्तरा नामक एक के भी कितने ही ग्रन्थों का परिशीलन किया था। एक वार उन्हें संयोग से विदुषी साध्वी के दर्शन का लाभ हुआ । उसकी धर्मचर्चा से वे प्रतिशय वैदिक सम्प्रदाय को छोड़कर जैनेश्वरी दीक्षा स्वीकार कर ली। उनके दीक्षादाता गुरु जिनदत्त सूरि थे । प्रभावित हुए । तब उन्होंने १ देखिये अन्त में परिशिष्ट ८ पृ. ७२. २ देखिये परिशिष्ट ७, पृ. ७२.
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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