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________________ प्रस्तावना ७३ उन्होंने सद्धर्म का उपदेश देने वाली याकिनी - महत्तरा को अपनी धर्ममाता माना । इसी से उन्होंने स्वरचित अधिकांश ग्रन्थों के पुष्पिकावाक्यों में अपने को जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय का अनुयायी याकिनी - महत्तरा का सूनु घोषित किया है । वे संस्कृत भाषा के तो अधिकारी विद्वान् पूर्व में ही रहे हैं, अब जैन धर्म में दीक्षित होकर उन्होंने जैनागमों का भी गम्भीर अध्ययन कर लिया व प्राकृत भाषा के भी अधिकारी विद्वान् हो गये । हरिभद्रसूरि का समय विक्रम संवत् ७५७ से ८२७ ( ई. सन् ७०० से ७७०) माना जाता है । वे कुवलयमाला के कर्ता उद्योतन सूरि के कुछ समकालीन रहे हैं'। उनके द्वारा उक्त दोनों ही भाषाओं में जहां अनेक मौलिक ग्रन्थ रचे गये हैं वहां अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों पर टीका भी की गई है। उनमें कुछ इस प्रकार हैं मूल ग्रन्थ १ धर्म संग्रहणी ३ पंचाशक प्रकरण ५ योगविशिका ७ योगदृष्टिसमुच्चय C षड्दर्शनसमुच्चय ११ भ्रष्टक प्रकरण १३ समराइच्चकहा १५ अनेकान्तजयपताका १७ लोकतत्त्वनिर्णय १६ सम्बोधसप्तति प्रकरण, इत्यादि टीकायें १ आवश्यकसूत्र ३ पाक्षिकसूत्र २ श्रावकप्रज्ञप्ति (स्वोपज्ञ टीका सहित) ४ पंचवस्तुक प्रकरण (स्वो टीका सहित) ६ योगबिन्दु (स्वो टीका सहित) ८ शास्त्रवार्तासमुच्चय १० धर्मबिन्दु प्रकरण १२ षोडशक प्रकरण १४ उपदेशपद १६ अनेकान्तवादप्रवेश १८ सम्बोध प्रकरण २ दशकालिक ४ पंचसूत्र ६ अनुयोगद्वार ललितविस्तरा ५ प्रज्ञापनासूत्र ७ नदीसूत्र ९ तत्वार्थवृत्ति, इत्यादि इन टीकाओं में उन्होंने सैकड़ों प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरण दिये हैं। इससे उनकी बहुश्रुतता का परिचय सहज में मिल जाता है । इनके द्वारा निर्मित ग्रन्थों और टीकानों के अन्त में प्रायः उपकार की स्मृतिस्वरूप 'याकिनी - महत्तरासूनु' उपलब्ध होता है । साथ ही उन्होंने अपनी इन कृतियों के अन्त में प्रायः 'भवविरह' शब्द का उपयोग किया है । १. श्री हरिभद्राचार्यस्य समयनिर्णयः, पृ. १-२३ ( जैन साहित्यशोधक समाज, पूना) तथा 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' भाग ३, पृ. ३५६.
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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