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________________ प्रस्तावना ध्यान का कथन किया है (७-१)। ३ आगमपरम्परा में व ध्यानशतक में भी पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपवजित इन चार ध्येयभेदों के अनुसार चार प्रकार के ध्यान की कहीं कुछ प्ररूपणा नहीं की गई है, पर प्रा. हेमचन्द्र ने अपने इस योगशास्त्र में ध्यान के इन चार भेदों की विस्तार से प्ररूपणा की है। ४ ध्यानशतक में ध्यातव्य (ध्येय) के प्रसंग में आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय इन धर्मध्यान के चार भेदों की ही प्ररूपणा की गई है। वहां पिण्डस्थ-पदस्थ आदि चार ध्यानों के विषय में कुछ भी निर्देश नहीं किया गया है। परन्तु योगशास्त्र में इनको प्रमुख स्थान दिया गया है तथा उपर्युक्त प्राज्ञाविचयादि चार धर्मध्यान के भेदों का विवेचन विकल्परूप में किया गया है। ५ ध्यानशतक में ध्याता का विचार करते हुए समस्त प्रमादों से रहित मुनि, उपशान्तमोह और क्षीणमोह इनको धर्मध्यान का ध्याता कहा गया है (६३) । परन्तु योगशास्त्र में ध्याता की विशेषता को प्रगट करके भी (७, २-७) धर्मध्यान के स्वामियों का कहीं कोई निर्देश नहीं किया गया। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, धर्मध्यान के स्वामियों के विषय में कुछ मतभेद रहा है। सम्भव है हेमचन्द्र सूरि ने इसी कारण से उसकी उपेक्षा की है। ६ ध्यानशतक में धर्मध्यान से सम्बन्धित लेश्यामों का निर्देश करके भी उसमें सम्भव क्षायोपशमिक भाव का कोई उल्लेख नहीं किया गया है (६६) । परन्तु योगशास्त्र में धर्मध्यान में सम्भव उन लेश्याओं के निर्देश के पूर्व ही उसमें क्षायोपशमिक आदि भाव का सद्भाव दिखलाया गया है। ७ स्थानांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, मूलाचार, तत्त्वार्थसूत्र एवं ध्यानशतक प्रादि प्राचीन ग्रन्थों में प्राणायाम को ग्रहण नहीं किया गया है। परन्तु योगशास्त्र में उस प्राणायाम का वर्णन करते हुए विविध प्रकार के वायुसंचार से सूचित शुभाशुभ की विस्तार से चर्चा की गई है। साथ ही वहां परकायप्रवेश आदि का भी कथन किया गया है। हां, यह अवश्य है कि प्रा. हेमचन्द्र ने वहां महर्षि पतञ्जलि विरचित योगशास्त्र में निर्दिष्ट उस प्राणायाम का विस्तार से वर्णन करते हुए भी उसे अनावश्यक और अहितकर बतलाया है (६, १-५)। १. यहां क्रम से ७वें प्रकाश में पिण्डस्थ (८-२८), वें प्रकाश में पदस्थ (१-५१), वें प्रकाश में रूपस्थ (१-१६) और १०वें प्रकाश में रूपातीत (१-६) ध्यान का वर्णन किया गया है। २. एवं चतुर्विधध्यानामृतमग्नं मुनेर्मनः । साक्षात्कृतजगत्तत्त्वं विधत्ते शुद्धिमात्मनः ।। प्राज्ञापायविपाकानां संस्थानस्य च चिन्तनात् । इत्थं वा ध्येयभेदेन धर्मध्यानं चतुर्विधम् ॥ यो. शा. १०, ६-७. पिण्डस्थ-पदस्थ आदि उक्त चार प्रकार के ध्यान की प्ररूपणा मा. शुभचन्द्र विरचित ज्ञानार्णव में संस्थान विचय धर्मध्यान के प्रसंग में (पृ, ३८१-४२३) और आ. अमितगति विरचित श्रावकाचार (१५, ३०-५६) में विस्तार से की गई है। ३. तत्त्वार्थाधिगमभाष्यसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र में धर्मध्यान के स्वामियों का निर्देश इस प्रकार किया गया है-आज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य । उपशान्त-क्षीणकषाययोश्च । ६, ३७-३८. ४. धर्मध्याने भवेद् भावः क्षायोपशमिकादिकः । लेश्याः क्रमविशुद्धाः स्युः पीत-पद्म-सिताः पुनः ।। १०.१६. (क्षायोपशमिक भाव की सूचना आदियुराण (२१-१५७) व ज्ञानार्णव (श्ज्ञोक ३६, पृ. २७०) में की गई है) ५. ज्ञानार्णव में भी उस प्राणायाम का विस्तार से वर्णन करते हुए (श्लोक १-१०२, पृ. २८४-३०३) भी उसे अनिष्टकर सूचित किया गया है (श्लोक १००, पृ. ३०२ व व श्लोक ४-६, पृ. ३०५)।
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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