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________________ ध्यानशतक बतलाकर उसकी स्थिति अन्तर्मुहर्त मात्र कही गई है तथा साथ में यह भी निर्देश किया गया है कि ऐसा ध्यान छयस्थों के होता है, केवलियों का ध्यान योगों के निरोधस्वरूप है (२-३); उसी प्रकार से यही भाव योगशास्त्र में भी प्रगट किया गया है (४-११५)। प्रागे ध्यानशतक में यह भी कहा है कि अन्तर्मुहर्त मात्र ध्यानकाल के पश्चात् चिन्ता अथवा ध्यानान्तर होता है, इस प्रकार बहुत वस्तुओं में संक्रमण के होने पर ध्यान की सन्तान दीर्घ काल तक चल सकती है। ठीक यही अभिप्राय योगशास्त्र में भी व्यक्त किया गया है। दोनों में शब्दों व अर्थ की समानता द्रष्टव्य है अंतोमुत्तपरमो चिता झाणंतरं व होज्जाहि । सुचिरं पि होज्ज बहुवत्थुसंकमे झाणसंताणो ॥ध्या. श. ४. मुहूर्तात् परतश्चिन्ता यद्वा ध्यानान्तरं भवेत् । बर्थसंक्रमे तु स्याद दीर्घापि ध्यानसन्ततिः॥यो. शा. ४-११६. इसी प्रकार शुक्लध्यान के प्रसंग में उपयुक्त ध्यानशतक की कुछ गाथानों का योगशास्त्र में छायानुवाद किया गया जैसा दिखता है। यथा निव्वाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स । सुहमकिरियाऽनियट्टि तइयं झाणं तणुकायकिरियस्स ॥ ८१. तस्सेव य सेलीसौगयस्स सेलोव्व निप्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइज्झाणं परमसुक्कं ॥ ध्या. श. ८२. निर्वाणगमनसमये केवलिनो दरनिरुद्धयोगस्य । सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति तृतीयं कीतितं शुक्लम् ॥ केवलिनः शैलेशीगतस्य शैलवदकम्पनीयस्य । उत्सग्नक्रियमप्रतिपाति तुरीयं परमशक्लम् ॥ यो. शा. ११, ८-९. इसी प्रकार मागे गा.८३-८४ का मिलान योगशास्त्र के ११, १०-११ श्लोकों से तथा गा. ८५, ८६, का मिलान योगशास्त्र के ११-१२वें श्लोकों से किया जा सकता है। कुछ विशेषता यहां यह विशेष स्मरणीय है कि प्रा. हेमचन्द्र ने ग्रन्थ के प्रारम्भ (१-४) में तथा अन्त में (१२-१ व १२-५५) में भी यह सूचना की है कि मैंने श्रुत के आश्रय से और गुरुमुख से जो योगविषयक ज्ञान प्राप्त किया है तदनुसार उसका वर्णन करता हुआ मैं कुछ अपने अनुभव के आधार से भी कथन करूंगा। इससे सिद्ध है कि उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ में आगमपरम्परा के अनुसार तो योग का वर्णन किया ही है, साथ ही उन्होंने अपने अनुभव के आधार से उसमें कुछ विशेषता भी प्रगट की है, जो इस प्रकार है १आगमपरम्परा में ध्यान के प्रात, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये चार भेद कहे गये हैं। पर प्रा. हेमचन्द्र ने उसके भेदों में प्रार्त और रौद्र इन दो दुानों को सम्मिलित न करके उस ध्यान को धर्म और शुक्ल के भेद से दो प्रकार का ही बतलाया है। २ ध्यानशतक में धर्मध्यान की प्ररूपणा यथाक्रम से भावना आदि (२८-२९) बारह द्वारों के प्राश्रय से की गई है, परन्तु प्रा. हेमचन्द्र ने उसकी उपेक्षा करके ध्याता, ध्येय और फल के अनुसार यहां १. जैसे-स्थानांग २४७, पृ. १८७; मूलाचार ५-१६७ और तत्त्वार्थसूत्र ६-२८ आदि । २. मुहूर्तान्तर्मन:स्थैर्य ध्यानं छद्मस्थयोगिनाम् । धम्यं शुक्लं च तद् द्वेधा योगरोधस्त्वयोगिनाम् ॥४-११५. षट्खण्डागम की प्रा. वीरसेन विरचित धवला टीका (पु. १३, पृ. ७०) में भी प्रार्त-रौद्र को सम्मिलित न करके ध्यान के ये ही दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं।
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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