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________________ ६६ प्रस्तावना तो देस-काल-चेट्टानियमो माणस्स नत्थि समयंमि । जोगाण समाहाणं जह होइ तहा पयइयव्वं ।। ध्या. श. ४१. वज्रकाया महासत्त्वा निःकम्पाः सुस्थिरासनाः ।। सर्वावस्थास्वलं ध्यात्वा गताः प्राग्योगिनः शिवम् ॥ १३, पृ. २७६. संविग्नः संवृतो धीर: स्थिरात्मा निर्मलाशयः । सर्वावस्थासु सर्वत्र सर्वदा ध्यातुमर्हति || २१, पृ. २८०. इस प्रकार की समानता को देखते हए भी ज्ञानार्णव पर ध्यानशतक का कुछ प्रभाव रहा है, यह सम्भावना नहीं की जा सकती है। इसका कारण यह है कि प्रा. जिनसेन के द्वारा आदिपुराण के २१वें पर्व में जो ध्यान का वर्णन किया गया है उसका प्रभाव ज्ञानार्णव पर अत्यधिक रहा है। अतः यही सम्भव है कि ज्ञानार्णवकार ने ध्यानशतक को आधार न बनाकर आदिपुराण के आश्रय से ही ध्यानविषयक प्ररूपणा की है। ग्रन्थकार प्रा. शुभचन्द्र ने स्वयं ही ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रा. जिनसेन के वचनों के महत्त्व को प्रगट करते हुए उनका स्मरण किया है। पूर्वोल्लिखित ज्ञानार्णव के श्लोक १६, ८, २२ तथा १३ और २१ क्रमशः आदिपुराण पर्व २१ के ६, ७७, ८३ और ७३ श्लोकों से प्रभावित हैं । आदिपुराण का वह ध्यान का प्रकरण ध्यानशतक से विशेष प्रभावित है, यह पहिले प्रगट किया ही जा चुका है। ध्यानशतक व योगशास्त्र जैसा कि ग्रन्थ के नाम से ही प्रगट है, प्रस्तुत योगशास्त्र यह योगविषयक एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। उसके रचयिता सुप्रसिद्ध हेमचन्द्र सरि (वि. की १२वीं शती) हैं। बह १२ प्रकाशों में विभक्त है। से प्रथम तीन प्रकाशों में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप रत्नत्रय; तथा चतुर्थ प्रकाश में कषायों, इन्द्रियों एवं राग-द्वेषादि की विजय के साथ समताभाव की प्राप्ति को अनिवार्य बतलाते हुए अनित्यादि बारह और मैत्री आदि चार भावनाओं की भी प्ररूपणा की गई है। यहीं पर ध्यान के योग्य अनेक आसनों का स्वरूप भी दिखलाया गया है। पांचवें प्रकाश में विस्तार से प्राणायाम का निरूपण करते हुए छठे प्रकाश में उससे होने वाली हानि का दिग्दर्शन कराया गया है तथा धर्मध्यान की सिद्धि में निमित्तभूत मनकी स्थिरता की आवश्यकता प्रगट की गई है। सातवें प्रकाश में ध्यान के इच्छुक योगी को पूर्व में ध्याता, ध्येय और फल के जान लेने की प्रेरणा करते हुए ध्येय के प्रसंग में उसके पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार भेदों का निर्देश किया गया है व उनमें से प्रथम पिण्डस्थ ध्येय की प्ररूपणा की गई है। आठवें प्रकाश में पदस्थ और नौवें प्रकाश में रूपस्थ ध्येय का निरूपण किया गया है । दशम प्रकाश में रूपातीत ध्येय का दिग्दर्शन कराते हुए विकल्परूप में उस ध्येय के ये चार भेद भी निर्दिष्ट किये गये हैं-प्राज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान । आगे यथाक्रम से उनके आश्रय से भी धर्मध्यान की प्ररूपणा की गई है। ग्यारहवें प्रकाश में शुक्लध्यान का निरूपण करके बारहवें प्रकाश में अनुभवसिद्ध तत्त्व को प्रकाशित किया गया है । ध्यानशतक का प्रभाव तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर इस योगशास्त्र के ऊपर ध्यानशतक का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। यथा १ जिस प्रकार ध्यानशतक को प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार ने मंगलस्वरूप योगीश्वर वीर को नमस्कार करके ध्यानशतक के कहने की प्रतिज्ञा की है (१) उसी प्रकार प्रा. हेमवन्द्र ने योगीश्वर महावीर जिन को नमस्कार करते हुए योगशास्त्र के रचने की प्रतिज्ञा की है (१, १.४)। २ जिस प्रकार ध्यानशतक में स्थिर अध्यवसान को-मन की स्थिरता को-ध्यान का लक्षण १. जयन्ति जिनसेनस्य वाचस्त्रविद्यवन्दिताः । योगिभिर्यत् समासाद्य स्खलितं नात्मनिश्चये ॥ ज्ञाना. १६, पृ. ८.
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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