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________________ ४७ -८६] शुक्लध्यानस्य लिङ्गानि पासवदारावाए तह संसारासुहाणुभावं च । भवसंताणमणन्तं वत्थूणं विपरिणामं च ॥८॥ आश्रवद्वाराणि मिथ्यात्वादीनि, तदपायान् दुःखलक्षणान्, तथा संसारानुभावं च 'धी संसारो' इत्यादि, भवसन्तानमनन्तं भाविनं नारकाद्यपेक्षया, वस्तूनां विपरिणामं च सचेतनाचेतनानाम् 'सव्वट्ठाणाणि असासयाणि' इत्यादि, एताश्चतस्रोऽप्यपायाशुभानन्त-विपरिणामानुप्रेक्षा आद्यद्वयभेदसङ्गता एव द्रष्टव्या इति गाथार्थः ।।८८॥ उक्तमनुप्रेक्षाद्वारम्, इदानीं लेश्याद्वाराभिघित्सयाह सक्काए लेसाए दो ततियं परमसक्कलेस्साए। थिरयाजियसेलेसि लेसाईयं परमसक्कं ॥६॥ प्रास्रवद्वारों से होने वाले अपाय, संसार की अशुभरूपता या दुःखरूपता का प्रभाव, जन्म-मरणरूप भवसन्तान की अनन्तता और चेतन-प्रचेतन वस्तुओं का विपरिणाम-विरुद्ध परिणाम (नश्वरता); ये वे चार अनुप्रेक्षायें हैं जिनका सदा चिन्तन किया जाता है। विवेचन-ध्यान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। ऐसी अवस्था में उस ध्यान के समाप्त हो जाने पर ध्याता क्या करता है, इसे स्पष्ट करते हुए यहां कहा गया है कि वह ध्यान (शुक्लध्यान) के समाप्त होने पर इन चार अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता है-१ आस्रवद्वारापाय-कर्मागम के द्वारभूत जो मिथ्यात्व व अविरति प्रादि हैं उनसे जीवों को नरकादि दुर्गतियों में पड़कर जो दुख भोगने पड़ते हैं उनका चिन्तन इस अनुप्रेक्षा में किया जाता है। २ संसाराशुभानुभाव (या संसारासुखानुभाव)-संसार की अशुभरूपता स्पष्ट है। प्राणी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को ग्रहण करता है, फिर उसको भी छोड़कर अन्य शरीर को ग्रहण करता है, इस प्रकार अन्य अन्य शरीर के ग्रहण करने और छोड़ने का नाम ही संसार है जो नरकादि चतुर्गतिस्वरूप है। यदि परमार्थ दृष्टि से देखा जाय तो उन चारों गतियों में से किसी में भी सुख नहीं है। कारण यह कि अभीष्ट विषयों के प्राप्त होने पर जो सुख का प्राभास होता है वह सर्वदा रहने वाला नहीं है-विनश्वर है। यद्यपि देवगति में सुख की कल्पना की जाती है, पर वस्तुतः वहां भी सुख नहीं है। वहां पर भी अधिक ऋद्धि के धारक देवों को देखकर मन में ईर्ष्याभाव व संक्लेश होता है। इसके अतिरिक्त वह देव अवस्था भी सदा रहने वाली नहीं है-पायु के समाप्त होने पर उसे भी छोड़ना पड़ता है। उस समय अधिक ब्याकुलता होती है। इतना अवश्य है कि जो सम्यग्दृष्टि होते हैं वे देवपर्याय से च्युत होते हुए संक्लेश को प्राप्त नहीं होते । इत्यादि प्रकार से इस दूसरी अनुप्रेक्षा में संसार को अशुभता, प्रसारता या दुःखरूपता का विचार किया जाता है। ३ भवसन्तान की अनन्तता-संसार परिभ्रमण के कारण मिथ्यात्व, राग, द्वेष एवं मोह आदि हैं। उनमें भी मिथ्यात्व प्रमुख है । जब तक इस जीव की दृष्टि मिथ्यात्व से कलुषित रहती है तब तक वह मिथ्यादृष्टि अपरीतसंसारी होता है-उसका संसार अनन्त बना रहता है। इसके विपरीत जिसकी दृष्टि मिथ्यात्वजनित कालुष्य को छोड़कर समीचीनता को प्राप्त कर लेती है उस सम्यगदृष्टि का संसार परीत हो जाता है-तब वह अनन्तसंसारी न रहकर अधिक से अधिक अर्घपुदगल प्रमाण संसार वाला हो जाता है। प्रभव्य का संसार अनन्त ही रहता है। इस प्रकार का चिन्तन अनन्त भवसन्तान नामक इस तीसरी अनुप्रेक्षा में किया जाता है। ४ वस्तूविपरिणाम-संसार में जो भी चेतन-अचेतन वस्तुयें हैं उनमें विविध प्रकार का परिणाम होता रहता है, स्थायी कोई भी वस्तु नहीं है। वस्तु का स्वभाव ऐसा ही है। इत्यादि विचार इस अनुप्रेक्षा में चाल रहता है। ये चारों अन प्रेक्षायें प्रथम दो शुक्लध्यानों से ही सम्बद्ध हैं, अन्तिम दो शुक्लध्यानों से उनका सम्बन्ध नहीं है। इतना • यहां विशेष समझना चाहिए ॥८॥ अद क्रमप्राप्त लेश्या द्वार का वर्णन किया जाता हैप्रथम दो शुक्लध्यान शुक्ललेश्या में होते हैं, तीसरा सूक्ष्मक्रिय-अनिवति शुक्लध्यान परमशुक्ल
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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