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________________ ध्यानशतकम् [८६चित्ताभावेवि सया सुहुमोवरयकिरियाइ भण्णंति । जीवोवप्रोगसब्भावनो भवत्थस्स झाणाई॥८६॥ काययोगनिरोधिनो योगिनोऽयोगिनोऽपि चित्ताभावेऽपि सूक्ष्मोपरतक्रियो भण्यते, सूक्ष्मग्रहणात् सूक्ष्मक्रियाऽनिवतिनो ग्रहणम्, उपरतग्रहणाद् व्युपरतक्रियाप्रतिपातिन इति, पूर्वप्रयोगादिति हेतुः, कुलालचक्रभ्रमणवदिति दृष्टान्तोऽभ्यूह्यः, यथा चक्रं भ्रमणनिमित्तदण्डादिक्रियाऽभावेऽपि भ्रमति तथाऽस्यापि मनःप्रभृतियोगोपरमेऽपि जीवोपयोगसद्भावतः भावमनसो भावात् भवस्थस्य ध्याने इति, अपिशब्दश्चोदनानिर्णयप्रथमहेतुसम्भावनार्थः, चशब्दस्तु प्रस्तुतहेत्वनुकर्षणार्थः, एवं शेषहेतवोऽप्यनया गाथया योजनीयाः, विशेषस्तूच्यते-'कर्मविनिर्जरणहेतुतश्चापि' कर्मविनिर्जरणहेतुत्वात् क्षपकश्रेणिवत्, भवति च क्षपकश्रेण्यामिवास्य भवोपग्राहिकर्मनिर्जरेति भावः, चशब्दः प्रस्तुतहेत्वनुकर्षणार्थः, अपिशब्दस्तु द्वितीयहेतुसम्भावनार्थ इति, 'तथा शब्दार्थबहुत्वात्' यथैकस्यैव हरिशब्दस्य शक्र-शाखामृगादयोऽनेकार्थाः एवं ध्यानशब्दस्यापि, न विरोधः, 'ध्ये चिन्तायाम्, ध्ये कायनिरोधे, ध्यै अयोगित्वे' इत्यादि, तथा जिनचन्द्रागमाच्चैतदेवमिति, उक्तं च-'पागमश्चोपपत्तिश्च सम्पूर्ण दृष्टिलक्षणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये ॥१॥ इत्यादि गाथाद्वयार्थः ।।८५-८६॥ उक्तं ध्यातव्यद्वारम्, ध्यातारस्तु धर्मध्यानाधिकार एवोक्ताः, अधुनाऽनुप्रेक्षाद्वारमुच्यते सुक्कज्झाणसुभावियचित्तो चितेइ झाणविरमेऽवि । णिययमणुप्पेहाओ चत्तारि चरित्तसंपन्नो ॥८७॥ शुक्लध्यानसुभावितचित्तश्चिन्तयति ध्यानविरमेऽपि नियतमनुप्रेक्षाश्चतस्रश्चारित्रसम्पन्नः, तत्परिणामरहितस्य तदभावादिति गायार्थः ॥८७॥ ताश्चैता: और व्युपरतक्रिय-अप्रतिपाति ध्यान कहे जाते हैं। कारण इसका यह है कि उनके जीवोपयोगरूप चित्त का सद्भाव पाया जाता है। विवेचन-अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कुम्हार के चाक को एक बार लकड़ी से घुमा देने पर वह लकड़ी के अलग कर देने पर भी पूर्व प्रयोग की अपेक्षा कुछ समय तक स्वयं ही घूमता रहता है उसी प्रकार केवली के मनयोगादि का निरोध हो जाने पर भी पूर्वकालीन जीव के उपयोगरूप भाव. मन के बने रहने से सयोगकेवली के सूक्ष्मक्रिय-अनिवति शुक्लध्यान (तीसरा) और प्रयोमकेवली के व्युपरतक्रिय-अप्रतिपाति शुक्लध्यान (चौथा) सम्भव है। दूसरे, जिस प्रकार कर्मनिर्जरा का कारणभूत ध्यान क्षपकश्रेणि में विद्यमान रहता है उसी प्रकार चंकि वह कर्मनिर्जरा केवली के भी होती ही है, प्रतएव उस निर्जरा का कारणभूत ध्यान उनके भी होना ही चाहिए। तीसरे, एक शब्द के अनेक अर्थ हमा करते हैं-जैसे 'हरि' शब्द के इन्द्र और बन्दर प्रादि अनेक अर्थ । तदनुसार 'ध्यान' शब्द की प्रकृतिभूत 'ध्य' धातु के भी चिन्ता, काययोगनिरोध और योगाभावरूप अनेक अर्थ होते हैं। इनमें से यहां-चतुर्थ शुक्लध्यान में योगों के प्रभावरूप अर्थ को ग्रहण करना चाहिए। चौथा कारण यह है कि जो भी अतीन्द्रिय पदार्थ हैं उनके सद्भाव का परिज्ञान आगम और युक्ति से ही हुमा करता है, तदनुसार चूंकि प्रयोगकेवली के चौथे शक्लध्यान का उल्लेख प्रागम में किया गया है, अतः चित्त के प्रभाव में भी उनके उस ध्यान को स्वीकार करना चाहिए ॥८५-८६।। इस प्रकार ध्यातव्य द्वार के समाप्त हो जाने पर अब क्रमप्राप्त ध्याता की प्ररूपणा की जानी चाहिए, पर चूंकि उसकी प्ररूपणा धर्मध्यान के प्रकरण (गा. ६४) में की जा चुकी है, अतएव उसकी पुनः प्ररूपणा न करके अब आगे अनुप्रेक्षा द्वार की प्ररूपणा की जाती है- . जिसका चित्त शुक्लध्यान से सुसंस्कृत हो चुका है वह चारित्र से युक्त ध्याता ध्यान के समाप्त हो जाने पर भी सदा चार अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता है ॥७॥ __ वे चार अनुप्रेक्षायें ये हैं
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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