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________________ ध्यानशतकम् [६९ इदानीं शुक्लध्यानावसर इत्यस्य चान्वर्थः प्राग्निरूपित एव, इहापि च भावनादीनि फलान्तानि तान्येव द्वादश द्वाराणि भवन्ति, तत्र भावना-देश-कालाऽऽसनविशेषेषु (धर्म)ध्यानादस्याविशेष एवेत्यत एतान्यनादृत्याऽऽलम्बनान्यभिधित्सुराह मह खंति-मद्दवज्जव-मुत्तीनो जिणमयप्पहाणाम्रो। आलंबणाई जेहि सुक्कज्झाणं समारहइ ॥६६॥ 'प्रथ' इत्यासनविशेषानन्तर्ये, 'क्षान्ति-माईवार्जव-मुक्तयः' क्रोध-मान-माया-लोभपरित्यागरूपाः, परित्यागश्च क्रोधनिवर्तनमुदयनिरोधः उदीर्णस्य वा विफलीकरणमिति, एवं मानादिष्वपि भावनीयम्, एता एव क्षान्ति-माईवाऽर्जव-मुक्तयो विशेष्यन्ते-'जिनमतप्रधानाः' इति जिनमते तीर्थकरदर्शने कर्मक्षयहेतुताम धिकृत्य प्रधानाः जिनमतप्रधानाः, प्राधान्यं चासामकषायं चारित्रं चारित्राच्च नियमतो मुक्तिरिति कृत्वा, ततश्चैता पालम्बनानि प्राग्निरूपितशब्दार्थानि, वैरालम्बनः करणभूतः शुक्लध्यानं समारोहति, तथा च क्षान्त्याद्यालम्बना एव शुक्लध्यानं समासादयन्ति, ना य इति गाथार्थः ॥६६॥ व्याख्यातं शुक्लध्यानमधिकृत्याऽऽलम्बनद्वारम् । साम्प्रतं क्रमद्वारावसरः, क्रमश्चाऽऽद्ययोधर्मध्यान एवोक्तः, इह पुनरयं विशेषः तिहुयणविसयं कमसो संखिविउ मणो अणुंमि छउमत्थो।। झायइ सुनिप्पकंपो झाणं अमणो जिणो होइ ॥७०॥ त्रिभवनम अधस्तिर्यगर्वलोकभेदम, तद्विषयः गोचरः पालम्बनं यस्य मनस इति योगः, तत्रिभुवन विषयम्, 'क्रमशः' क्रमेण परिपाटया प्रतिवस्तुपरित्यागलक्षणया, 'संक्षिप्य' सङ्कोच्य, किम् ? 'मनः' अन्तःकरणम्, क्व ? 'प्रणी' परमाणी, निधायेति शेषः, कः ? 'छद्मस्थः' प्राग्निरूपितशब्दार्थः, 'ध्यायति' चिन्तयति 'सुनिष्प्रकम्पः' अतीव निश्चल इत्यर्थः, 'ध्यानम' शुक्लम, ततोऽपि प्रयत्नविशेषान्मनोऽपनीय 'अमनाः' मविद्यमानान्तःकरणः 'जिनो भवति' अर्हन् भवति, चरमयोद्धयोातेति वाक्यशेषः, तत्राप्याद्यस्यान्त शुक्लध्यान के फलद्वार में किया जाने वाला है । इस प्रकार धर्मध्यान के समाप्त हो जाने पर अब शुक्लध्यान अवसरप्राप्त है। उसकी प्ररूपणा में भी वे ही भावना आदि (२८-२९) बारह द्वार हैं, जिनका कथन धर्मध्यान के प्रकरण में किया जा चुका है। उनमें भावना, देश, काल और मासनविशेष इन द्वारों में यहां धर्मध्यान से कुछ विशेषता नहीं है, अतः इनको छोड़कर भागे मालम्बन द्वार का निरूपण किया जाता है क्रोध, मान, माया और लोभ के परित्याग स्वरूप जो क्रम से क्षान्ति (क्षमा), मार्दव, मार्जव पौर मुक्ति हैं वे जिनमत में प्रधान होते हुए प्रकृत शुक्लध्यान के पालम्बन हैं। कारण यह कि इनके प्राश्रय से मुमुक्षु ध्याता उस शुक्लध्यान के ऊपर पारूढ़ होता है। उक्त क्रोधादि कषायों के परित्याग से अभिप्राय उनसे निवृत्त होने, उनके उदय के रोकने अथवा उदय को प्राप्त हुए उनके निष्फल करने का रहा है। जिनमत में प्रधान उन्हें इसलिए कहा गया है कि मुक्ति का कारणभूत जो चारित्र है वह उक्त क्रोधादि कषायों के प्रभाव में ही प्रादुर्भूत होता है ॥६६॥ अब शुक्लध्यान के अधिकार में क्रमद्वार अवसरप्राप्त है। धर्मध्यान के प्रकरण में जो क्रमद्वार का कथन किया गया है उसे प्रादि के दो शक्लध्यानों के भी सम्बन्ध में समझना चाहिए। विशेषता यहां यह है छद्मस्थ ध्याता तीनों लोकों के विषय करने वाले मन को क्रम से संकुचित करके परमाणु में स्थापित करता हुआ अतिशय स्थिरतापूर्वक शुक्लध्यान का चिन्तन करता है। तत्पश्चात् प्रयत्नविशेष द्वारा परमाणु से भी उसे हटाकर उस मन से रहित होता हुग्रा जिन-परहन्त केवली हो जाता है और तब अन्तिम दो शुक्लध्यानों का चिन्तन करता है। उनमें से जब शैलेशी अवस्था के प्राप्त होने में अन्तर्मुहर्त मात्र शेष रहता है तब प्रथम का-सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाती शुक्लध्यान का-और तत्पश्चात् शैलेशी अवस्था में द्वितीय का-व्यपरतक्रिया-प्रप्रतिपाती शुक्लध्यान का चिन्तन करता है ॥७॥
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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