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________________ ३६ -७४] शुक्लध्याने मनोयोगनिरोधः महर्तन शैलेशीमप्राप्तः, तस्यां च द्वितीयस्येति गाथार्थः ॥७०॥ पाह-कथं पुनश्छद्मस्थस्त्रिभुवनविषयं मनः संक्षिप्याणी धारयति, केवली वा ततोऽप्यपनयतीति ? अत्रोच्यते जह सव्वसरीरगयं मंतेण विसं निरु भए डंके। तत्तो पुणोऽवणिज्जइ पहाणयरमंतजोगेणं ॥७॥ 'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासार्थः, 'सर्वशरीरगतम्' सर्वदेहध्यापकम्, 'मन्त्रेण विशिष्टवर्णानुपूर्वीलक्षणेन, 'विषम' मारणात्मकं द्रव्यम, 'निरुध्यते' निश्चयेन ध्रियते, क्व ? 'उङ्के' भक्षणदेशे, 'ततः' डडात्पुनरपनीयते, केनेत्यत आह–'प्रधानतरमन्त्रयोगेन' श्रेष्ठतरमन्त्रयोगेनेत्यर्थः, मन्त्र-योगाभ्यामिति च पाठान्तरं वा, मत्र पुनर्योगशब्देनागदः परिगृह्यते इति गाथार्थः ।।७१॥ एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः तह तिहुयण-तणुविसयं मणोविसं जोगमंतबलजुत्तो। परमाणुंमि निरु भइ प्रवणेइ तमोवि जिण-वेज्जो ॥७२॥ तथा 'त्रिभुवन-तनुबिषयम्' त्रिभुवन-शरीरालम्बनमित्यर्थः, मन एव भवमरणनिबन्धनत्वाद्विषम, 'मन्त्र-योगबलयुक्तः' जिनवचन-ध्यानसामर्थ्यसम्पन्नः परमाणौ निरुणद्धि, तथाऽचिन्त्यप्रयत्नाच्चापनयति 'ततो. ऽपि तस्मादपि परमाणोः, कः? 'जिन-वैद्यः' जिन-भिषग्वर इति गाथार्थः॥७२॥ अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तान्तर .. मभिधातुकाम पाह उस्सारियेंधणभरो जह परिहाइ कमसो. हुयासुव्व । थोविधणावसेसो निव्वाइ तोऽवणीनो य ॥७३॥ तह विसइंधणहीणो मणोहुयासो कमेण तणुयंमि । विसइंधणे निरंभइ निव्वाइ तोऽवणीयो य ॥७४॥ 'उत्सारितेन्धनभरः' अपनीतदाह्यसङ्गातः यथा 'परिहीयते' हानि प्रतिपद्यते 'क्रमशः' क्रमेण 'हताशः' वह्निः, 'वा' विकल्पार्थः, स्तोकेन्धनावशेषः हुताशमात्रं भवति, तथा 'निर्वाति' विध्यायति 'ततः स्तोकेन्धनादपनीतश्चेति गाथार्थः ॥७३॥ अस्यैव दृष्टान्तोपनयमाह-तथा विषयेन्धनहीनः' गोचरेन्धनरहित इत्यर्थः, मन एव दुःख-दाहकारणत्वाद् हुताशो मनोहुताशः, 'क्रमेण' परिपाटया 'तनुके' कृशे, क्व ? 'विषयेधने' प्रणावित्यर्थः, किम् ? 'निरुध्यते' निश्चयेन ध्रियते, तथा 'निर्वाति ततः तस्मादणोरपनीतश्चेति गाथार्थः ॥७४॥ पुनरप्यस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तोपनयावाह प्रागे छमस्थ तीनों लोकों के विषय करने वाले उस मन को संकुचित करके कैसे परमाणु में स्थापित करता है तथा केवली उससे भी उसे कैसे हटाते हैं, इसे दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट किया जाता है जिस प्रकार समस्त शरीर में व्याप्त विष को मंत्र के द्वारा डंक में-काटने के स्थान में रोका जाता है और तत्पश्चात् अतिशय श्रेष्ठ मंत्र के द्वारा डंकस्थान से भी उसे हटा दिया जाता है, उसी प्रकार तीनों लोकरूप शरीर को विषय करने वाले मनरूप विष को ध्यानरूप मंत्र के बल से यक्त ध्याता परमाणु में रोकता है और तत्पश्चात जिनरूप वैद्य उस परमाणु से भी उसे हटा देता है ॥७१-७२।। इसी को आगे दूसरे दृष्टान्त द्वारा पुष्ट किया जाता है जिस प्रकार इंधन के समुदाय के हट जाने पर अग्नि क्रम से अल्प इंधन के शेष रह जाने तक उत्तरोत्तर हानि को प्राप्त होती है और तत्पश्चात् अल्प इंघन के भी समाप्त हो जाने पर वह बुझ जाती है उसी प्रकार विषयरूप इंधन की हानि को प्राप्त हुई मनरूप अग्नि भी क्रम से उक्त विषयरूप इंघन के अल्प रह जाने पर परमाणु में रुक जाती है और तत्पश्चात् उस विषयरूप इंधन के सर्वथा नष्ट हो जाने पर वह मनरूप अग्नि भी बुझ जाती है। अभिप्राय यह है कि मन का विषय यद्यपि असीमित है, फिर भी विषयाकांक्षा के उत्तरोत्तर हीन होने पर उस मन का विषय परमाणु मात्र रह जाता है, तथा अन्त में उक्त विषयाकांक्षा का सर्वथा अभाव हो जाने पर वह मन भी विषयातीत होकर नष्ट हो जाता है ॥७३-७४॥
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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