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________________ -६८ ] धर्मध्याने लिंगद्वारप्ररूपणा ३७ - ग्राह— 'धर्मंध्यानोपगतस्य' धर्मध्यानयुक्तस्येत्यर्थः, किविशिष्टाश्चैता भवन्त्यत श्राह — 'तीव्र - मन्दादिभेदाः ' इति, तत्र तीव्रभेदाः पीतादिस्वरूपेष्वन्त्याः, मन्दभेदास्त्वाद्याः, श्रादिशब्दान्मध्यमपक्षपरिग्रहः, अथवौघत एव परिणामविशेषात् तीव्र-मन्दभेदा इति गाथार्थः ॥ ६६ ॥ उक्तं लेश्याद्वारम्, इदानीं लिङ्गद्वारं विवृण्वन्नाह - श्रागम-उवएसाऽऽणा- णिसग्गश्रो जं जिणप्पणीयाणं । भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तं लिंगं ॥६७॥ इहागमोपदेशाऽऽज्ञा- निसर्गतो यद् 'जिनप्रणीतानां' तीर्थंकरप्ररूपितानां द्रव्यादिपदार्थानाम् 'श्रद्धानम्' अवितथा एत इत्यादिलक्षणं धर्मध्यानस्य तल्लिङ्गम्, तत्त्वश्रद्धानेन लिङ्गयते धर्मध्यायीति, इह चागमः सूत्रमेव, तदनुसारेण कथनम् उपदेशः, श्राज्ञा त्वर्थ:, निसर्गः स्वभाव इति गाथार्थः ॥ ६७॥ कि च जिजसाहूगुण कित्तण- पसंसणा विणय- दाणसंपण्णो । सुन- सील-संजमरश्रो धम्मज्झाणी मुणेयव्वो ॥ ६८ ॥ 'जिन-साधुगुणोत्कीर्तन-प्रशंसा - विनय-दानसम्पन्न:' इह जिन- साघवः प्रतीताः, तद्गुणाश्च निरतिचारसम्यग्दर्शनादयस्तेषामुत्कीर्तनं सामान्येन संशब्दनमुच्यते, प्रशंसा त्वहो श्लाघ्यतया भक्तिपूर्विका स्तुतिः, विनयः अभ्युत्थानादि, दानम् अशनादिप्रदानम्, एतत्सम्पन्नः एतत्समन्वितः तथा श्रुत-शील-संयमरतः, तत्र श्रुतं सामायिकादिबिन्दुसारान्तम्, शीलं व्रतादिसमाघानलक्षणम्, संयमस्तु प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणः, यथोक्तम्—'पञ्चाश्रवात्' इत्यादि, एतेषु भावतो रतः, किम् ? धर्मध्यानीति ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ ६८ ॥ गतं लिङ्गद्वारम्, अधुना फलद्वारावसरः, तच्च लाघवार्थं शुक्लध्यानफलाधिकारे वक्ष्यतीत्युक्तं धर्मध्यानम् । परिणमन हुआ करता है उसी प्रकार कर्म के निमित्त से श्रात्मा का जो परिणाम होता है उसका नाम लेश्या है । वह छह प्रकार की है-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल । इनमें प्रथम तीन प्रशुभ व न्तिम तीन शुभ हैं । धर्मध्यानी के जो पीत आदि तीन शुभ लेश्यागें होती हैं वे क्रम से विशुद्धि को प्राप्त हैं- पीत लेश्या की अपेक्षा पद्म और पद्म की अपेक्षा शुक्ल इस प्रकार वे उत्तरोत्तर विशुद्ध हैं । इनमें प्रत्येक तीव्र, मध्यम और मन्द भेदों से युक्त हैं—उनमें जो अन्तिम अंश हैं वे तीव्र भोर आदि के अंश मन्द हैं, शेष मध्य के अनेक अंश मध्यम हैं ॥ ६६ ॥ अब क्रमप्राप्त लिंग द्वार का वर्णन किया जाता है श्रागम, उपदेश, श्राज्ञा श्रथवा स्वभाव से जो जिन भगवान् के द्वारा उपदिष्ट जीवाजीवादि पदार्थो का श्रद्धान उत्पन्न होता है वह धर्मध्यान का लिंग—उसका परिचायक हेतु है । ग्रागम नाम सूत्र का है । उस सूत्र के अनुसार जो कथन किया जाता है वह उपदेश कहलाता है। इस उपदेश का जो अर्थ या अभिप्राय होता है उसे प्राज्ञा कहा जाता है। स्वभाव और निसर्ग ये समानार्थक शब्द हैं ॥६७॥ आगे इसी प्रसंग में धर्मध्यानी का स्वरूप कहा जाता है जो जिन, साधु और उनके गुणों के कीर्तन; प्रशंसा, विनय एवं दान से सम्पन्न होता हुआ श्रुत, शील और संयम में लीन होता है उसे धर्मध्यानी जानना चाहिए ॥ विवेचन - धर्मध्यानी की पहिचान तत्त्वार्थश्रद्धान से होती यह पूर्व गाथा में कहा जा चुका है। इसके अतिरिक्त उसमें और धन्य कौन से गुण होते हैं, इसका निर्देश प्रकृत गाथा में किया जा रहा है - वह जिन, साधु और उनके गुणों का कीर्तन व प्रशंसा करता है। उक्त जिन आदि का सामान्य से शब्दों द्वारा उल्लेख करना, इसका नाम कीर्तन और स्तुतिरूप में भक्तिपूर्वक उनको बढ़ा-चढ़ाकर कहना इसका नाम प्रशंसा है । जिन श्रादि को देखकर उठ खड़े होना व प्रादर व्यक्त करना, इसे विनय कहा जाता है। भोजन प्रादि के देने रूप दान प्रसिद्ध ही है। उक्त धर्मध्यान का ध्याता सामायिक प्रावि बिन्दुसार पर्यन्त श्रुत के परिशीलन में उद्यत रहता हुआ व्रतादि के संरक्षण रूप शील व हिंसादि के परित्यागरूप संयम में तत्पर रहता है ॥६८॥ अब यद्यपि फलद्वार अवसर प्राप्त है, पर लाघव की अपेक्षा उसका कथन यहां न करके आगे
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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