SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ अहम् ॥ सह-संपादक की कलम से... मुनिश्री रत्नसेन विजयजी म. अनंत ज्ञानी, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवंतों ने ज्ञान के पाँच भेद बतलाए हैं-(१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मन.पर्यवज्ञान और (५) केवलज्ञान । - इन पांच ज्ञानों में मति और श्रुतज्ञान प्रात्म-परोक्ष हैं और अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान आत्म-प्रत्यक्ष हैं। • छद्मस्थ प्रात्मा को इन पांचों ज्ञानों में से चार ज्ञान संभव शक्य हैं। केवलज्ञान की प्राप्ति एकमात्र वीतराग आत्मा को ही होती है । * इन पाँच ज्ञानों में से प्रथम चार ज्ञान का विषय मर्यादित/सीमित है, जबकि केवलज्ञान का विषय अनंत है। केवलज्ञान के द्वारा प्रात्मा जगत् के समस्त पदार्थों के समस्त पर्यायों को साक्षात् जान सकती है। • इन पांचों ज्ञानों में एकमात्र 'श्रुतज्ञान' की ही अभिव्यक्ति हो सकती है, शेष चार ज्ञान मूक हैं। इन पाँचों ज्ञानों में परोपकार में समर्थ एकमात्र 'श्रुतज्ञान' ही है शेष चार ज्ञान स्वोपकार प्रधान हैं। • इन पांचों ज्ञानों में से एकमात्र श्रुतज्ञान का ही आदान-प्रदान हो सकता है, शेष चार ज्ञानों का नहीं। जैनशासन का लोकोत्तर-व्यवहार मार्ग 'श्रुतज्ञान' के ऊपर ही अवलंबित है और इस व्यवहार का पालन तीर्थंकर परमात्मा और अन्य केवली भगवंत भी करते हैं। - तीर्थंकर परमात्मा भी समवसरण में बैठकर देशना के प्रारम्भ में 'नमो तित्थस्स' कहकर द्वादशांगी रूप 'श्रुतज्ञान' को नमस्कार करते हैं। तीर्थंकर परमात्मा भी केवलज्ञान द्वारा दृष्ट जगत् के भावों का निरूपण 'द्रव्य-श्रुत' के माध्यम से ही करते हैं। इसीलिए प्रभु की वाणी 'सम्यग्श्रुत' स्वरूप है। . जैनागमों में 'नमो बंभीलिवीए' कहकर श्रत की जननी-स्वरूप ब्राह्मी-लिपि को भी नमस्कार किया गया है। * 'श्रुत' के सम्यग् बोध के लिए और द्वितीय महाव्रत के पालन / रक्षण व संवर्धन के लिए व्याकरण का सम्यग् बोध अत्यंत ही जरूरी है। 'प्रश्नव्याकरण' रूप दसवें अंग में कहा गया है अह केरिसयं पुणाइ सच्चं भासिअव्वं ? जं तं दम्वेहिं पज्जवेहिं य गुणेहिं कम्मेहिं बहुविहेहिं
SR No.032130
Book TitleSiddha Hemchandra Shabdanushasan Bruhad Vrutti Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVajrasenvijay
PublisherBherulal Kanaiyalal Religious Trust
Publication Year1986
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy