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________________ है तो असुरक्षा से हम राजी हैं। मौत आयेगी, तैयार हैं। बुढ़ापा आयेगा, उत्सुकता से प्रतीक्षा करेंगे। जिनके जीवन में विरोध न रहा सत्य का, तथ्य का, उनके जीवन में असुरक्षा अपने आप खो गई। यह तुम्हें हैरानी की लगेगी बात मैं फिर दोहरा सुरक्षा मांगी, असुरक्षा पैदा होती है। असुरक्षा है नहीं, तुम्हारी सुरक्षा की मांग से पैदा हो रही है। सुरक्षा की मांग गई, असुरक्षा भी गई। और तब जो शेष रह जाता है वही वास्तविक सुरक्षा है। तुम पूछते हो, ' आप कहते हैं, अस्तित्व के हाथों में छोड़ दें, इससे तो स्थिति और भी असुरक्षित हो जायेगी । ' तुम बिना छोडे ही पूछ रहे हो। छोड़कर देखो। इधर मैंने छोड़कर देखा और मैं तुमसे कहता हूं? सब असुरक्षा खो जाती है। मैं कोई पंडित नहीं हूं। मैं किसी शास्त्र के सिद्धांत को समझाने नहीं बैठा हूं। यह मैं तुमसे अपने अनुभव से कहता हूं। यह मैं जानकर कहता हूं कि जिस दिन सुरक्षा छोड़ी उसी दिन असुरक्षा भी गई। असुरक्षा सुरक्षा की ही छाया है। मूल ही चला गया तो अब पत्ते कहां लगेंगे? जड़ ही न रही तो अब अंकुर कहां फूटेगा ? नहीं, तुम सोच-सोचकर कह रहे हो। तुम कह रहे हो कि हम तो वैसे ही परेशान हैं। सुरक्षा खोज-खोजकर तो मिल नहीं रही, और आप मिल गये महाजन! आप कहते हैं, खोज भी छोड़ दो। खोज-खोजकर तो मिलती नहीं और आप कहते हैं, खोज भी छोड़ दो। खोज - खोजकर तो मिलती नहीं और आप कहते हैं इस अस्तित्व के हाथों में छोड़ दो। और असुरक्षित हो जायेंगे। फिर तो गये ! मारे गये! फिर बचाव का कोई उपाय न रहा। बच-बचकर नहीं बच पा रहे हैं और आप कहते हैं, बचाओ ही मत छोड़ो यह ढाल, छोड़ो यह तलवार । छोड़ ही दो । तुम्हारी बात भी मेरी समझ में आती है। अगर तुम तर्क से ही सोचोगे तो ऐसा लगेगा; सुनिश्चित लगेगा। लेकिन यह अनुभव की बात है, तर्क की बात नहीं । तुम थोड़ा स्वाद लेकर देखो। छोड़कर ही देखो। और ऐसा मत छोड़ना शर्त के साथ कि जरा देखें छोड़कर, क्या होता है। तो तुमने छोड़ा ही नहीं । यह अनुभव वस्तुत हो तो तुम अचानक पाओगे, न कोई असुरक्षा है, न सुरक्षा की कोई जरूरत है। तुम परमात्मा हो। तुम परमपद पर विराजमान हो। जो मिटता है वह तुम नहीं हो। जो आता-जाता है वह तुम नहीं हो। जो सदा है वही तुम हो। तत्वमसि । वही एक, जो न कभी आया, न कभी गया । जो शाश्वत, सनातन; चिर पुरातन, चिर नूतन सदा से है और सदा रहेगा । यद्यपि बहुत-से रूप बनते और बिगड़ते हैं, लेकिन रूप के भीतर जो रूपायित है, वह अखंड, अविच्छिन्न बहता रहता है। और दूसरी बात, पूछा है. प्रेम। तो असुरक्षा को मिटाने का तो उपाय है, सुरक्षा की वासना छोड़ दो। और प्रेम को पाने का उपाय है कि प्रेम को पाने मत जाओ, देने जाओ। तुम जब भी प्रेम को पाने जाते हो तभी चूक जाते हो। तुम कहते हो मिल जाये यहां से, मिल जाये वहां से। प्रेम कोई दे थोड़े ही सकता तुम्हें ! प्रेम कोई ऐसी चीज थोड़े ही है कि बाहर रखी है कि जाकर कब्जा कर लिया, कि भर ली तिजोडिया। प्रेम कोई वस्तु नहीं है। प्रेम तो एक चैतन्य की दशा है।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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