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________________ प्रेम कोई संबंध नहीं है, जो तुम्हारे और तुम्हारी पत्नी के बीच होता या तुम्हारे और तुम्हारे बेटे के बीच होता है। प्रेम तो एक चैतन्य की दशा है। जब तुम परम आनंदित होते हो, तुमसे प्रेम झरता है। जैसे फूल जब खिलते हैं तो सुगंध झरती। सूरज निकलता है तो रोशनी झरती । ऐसे तुम जब परम शांति को उपलब्ध होते हो तो तुमसे प्रेम झरता है। और तुम बाहर भटक रहे हो। तुम कहां खोजने चले हो? किससे मांगने जा रहे हो? जो तुम्हारे भीतर की संपदा है, किसी और से नहीं मिलेगी। किसी और से मांगने गये तो चूकते ही रहोगे, चूकते ही चले जाओगे। एक से न मिलेगी तो दूसरे के पास, दूसरे से नहीं तो तीसरे के पास जन्मों-जन्मों में ऐसे ही तो तुमने आवागमन किया है। कितने घरों के द्वार पर तुमने भीख नहीं मांगी! भिक्षापात्र तो देखो, खाली का खाली है। अब जरा उनकी भी सुनो, जो कहते हैं, मांगने की जरूरत ही नहीं है। जिस हीरे को तुम खोजने चले हो वह तुम्हारे ही अंतरतम में पड़ा है। प्रेम तुम्हारी संपदा है। प्रेम मिला बुद्ध को, प्रेम मिला महावीर को, प्रेम मिला जीसस को, प्रेम मिला मोहम्मद को और उन्होंने किसी में जाकर प्रेम खोजा नहीं, प्रेम के संबंध नहीं बनाये। भीतर झांका, अंतर में झांका और प्रेम के झरने फूटे | प्रेम एक चित्त की आखिरी दशा है, खिला हुआ फूल जिसको हम सहस्रार कहते हैं। वह हजार पंखुरियों वाला कमल जब तुम्हारे भीतर खुलता है उससे जो सुगंध बहने लगती है वही सुगंध प्रेम है। प्रेम संबंध नहीं, प्रेम स्वभाव है। इसलिए तुम चूक रहे हो। अगर तुम भीतर झांको तो तुम नाच उठो जैसे मोर नाच उठते हैं, जब आषाढ़ के पहले मेघ घिरते हैं। अभी तो तुम्हारी हालत ऐसी है कि जैसे कौवे का पंख रखे हो और मोर का पंख मान बैठे हो। समझाते – बुझाते बहुत अपने को कि नहीं है मोर का ही, लेकिन जानते तो हो कि है कौवे का। फिर गौर से देखते हो, फिर कौवे का पंख दिखाई पड़ जाता है। मोर का पंख कौवे के पंख को लीप-पोतकर नहीं बनाया जा सकता, रंग-रोगन करके नहीं बनाया जा सकता। जिस दिन तुम भीतर झांकोगे उस दिन तुम्हारा मोर नाच उठेगा। मन-मयूर नाचे । मयूरी नाच! आषाढ़ के मेघ बादल में जैसे घिर जायें, जैसे पहली - पहली वर्षा गिरती है। और सूखे पत्ते हरे होने लगते हैं और सूख गये वृक्षों के प्राण फिर संजीवना से भर जाते हैं, भूखी धरती, प्यासी धरती तृप्त हो जाती है और सब तरफ एक हरियाली, एक संतोष, एक परितोष छा जाता। हरी चूनर पहनकर आ गई वर्षा सुहागन फिर कहीं वन-बीच फूलों में पड़ी थी स्वप्न में सोई उलझते बादलों की लट पिया छलका गया कोई तिमिर ने राह कर दी, राह कच्ची धूप की धोई पवन की रागिनी मोती भरे आकाश में खोई पहन धानी लहरिया आ गई वर्षा सुहागन फिर मयूरी नाच! और ये बादल बाहर के आकाश में नहीं घिरते, और यह वर्षा बाहर के बादलों की
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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