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________________ दिन के लिए सुख का विचार ही छोड दो; मिले न मिले। अगर छोड़ सको सुख का भाव तो मिलेगा। सीधे-सीधे सुख को पाने की कोई व्यवस्था नहीं है इस जगत में । सुख आता पीछे के दरवाजे से, चुपचाप। पगध्वनि भी नहीं होती। तुम जब मस्त होते हो किसी और बात में तब आता है। कोई चित्रकार अपना चित्र बना रहा है - मुग्ध, डूबा, सारी दुनिया को भूला। उन क्षणों में अस्तित्व नहीं रहा, उन क्षणों में स्वयं भी नहीं रहा । उन क्षणों में तो बस चित्र बन रहा है। सच पूछो तो उन क्षणों में परमात्मा चित्र बना रहा है, चित्रकार तो मिट गया। अलक्ष्यस्फुरणा काम करने लगी। तब चित्र अनूठा बनेगा। और तब कभी ऐसा भी होगा कि चित्रकार खड़ा होकर देखेगा मंत्रमुग्ध। अपनी ही कृति पर भरोसा न कर पायेगा। कहेगा, कैसे बनी? किसने बनाई ? पिकासो ने कहा है कि कई बार कोई चित्र बन गया, फिर मैंने दुबारा उसे बनाने की कोशिश की और नहीं बना पाया। बहुत कोशिश की और नहीं बना पाया। फिर वैसी बात नहीं बनी। फिर किसी दिन बन गया । और जब फिर मैंने चेष्टा की तो फिर चूका, फिर हारा। अहंकार जीतता ही नहीं । रवींद्रनाथ ने कहा है कि जब-जब मैंने चेष्टा की तब-तब गीत नहीं बने। जब बने तभी बने। तो कभी-कभी ऐसा हो जाता था कि रवींद्रनाथ बैठे हैं, किसी से बात कर रहे हैं और अचानक भाव-रूपांतरण हो जाता। अचानक उनके चेहरे पर कोई और आभा आ जाती। कोई एक दीवानापन एक मस्ती, जैसे कि शराब में डूब गये। तो उनके पास रहनेवाले लोग, उनके शिष्य, उनके मित्र, उनके प्रियजन धीरे- धीरे जानने लगे थे कि उस समय चुपचाप हट जाना चाहिए। गुरुदयाल मलिक उनके एक पुराने साथी थे। वे कभी-कभी मुझे सुनने आते थे। एक बार उन्होंने मुझे आकर कहा कि आपसे एक बात कहनी है। मैं रवींद्रनाथ के पास जब पहली दफा गया तो मुझे भी कहा गया था कि अगर बीच में और लोग हटें तो तुम भी हट जाना। क्योंकि कब उन पर परमात्मा आविष्ट हो जाता है, कुछ कहा नहीं जा सकता। उस वक्त बाधा नहीं देनी है। तो कोई आठ-दस मित्र रवींद्रनाथ को मिलने गये थे। गुरुदयाल पहली दफा गये थे। और रवींद्रनाथ ने अपने हाथ से चाय बनाई और सबको वे चाय दे रहे थे। और अचानक चाय देते समय उनके हाथ से प्याला छूट गया, आंखें बंद हो गईं और वे डोलने लगे। एक-एक आदमी उठ गया। वे सब तो परिचित थे। और उन्होंने गुरुदयाल को भी इशारा किया कि उठ आओ। गुरुदयाल ने मुझे कहा कि मैं उठ न सका। उन्होंने बहुत इशारा किया तो मैं उठ भी गया, तो भी मैं दरवाजे के बाहर खड़ा हो गया। यह जो अपूर्व घट रहा था, मैं इसके दर्शन करना चाहता था। यह क्या हो रहा था? मैंने अपनी आंख के सामने देखा कि अभी एक क्षण पहले जो आदमी था रवींद्रनाथ, अब वही नहीं है । कोई नई आभा ! जैसे कोई और आत्मा प्रविष्ट हो गई। एक आलोकमडित व्यक्तित्व! जैसे भीतर कोई बुझा था दीया जल गया। जैसे रोशनी बाहर आने लगी । और एक अपूर्व शांति छा गई। और मैं मंत्रमुग्ध खड़ा रहा। मन में अपराध भी लग रहा था कि खड़ा नहीं होना चाहिए क्योंकि सबने कहा हट जाओ। और लोग चले भी गये, मैं चोरी से खड़ा हूं। लेकिन हट भी न सका । कुछ ऐसा
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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