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________________ जादू घट रहा था कि हट भी नहीं सका । और वे खड़े देखते रहे। फिर रवींद्रनाथ धीरे धीरे डोलने लगे, खड़े होकर नाचने लगे और फिर गुनगुनाने लगे। गुरुदयाल ने मुझे कहा कि मैंने अपनी आंख के सामने कविता को जन्म लेते देखा। वह सौभाग्य का क्षण था। वैसा अपूर्व क्षण फिर कभी नहीं मिला। मैंने अपने सामने कविता को जन्म लेते देखा। फिर रवींद्रनाथ ने कागज उठा लिया, जो गुनगुनाया था वह लिखने लगे। और धीरेधीरे गुरुदयाल वहां से हटकर चुपचाप अपने कमरे में चले गये। तीन दिन तक रवींद्रनाथ बंद ही रहे अपने कमरे में, बाहर न निकले। जब कविता उतरती तो वे भोजन भी बंद कर देते। जब कविता उतरती तो वे स्नान भी न करते। जब कविता उतरती तो वे किसी से मिलते-जुलते भी नहीं। जब कविता उतरती तो कैसा सोना, कैसा गाना! सब अस्तव्यस्त हो जाता। जब कविता उतरती तो कोई और ही उन्हें चलाता, कोई और ही उनकी बागडोर थाम लेता । इस बात का नाम ही है शुद्ध स्फुरणा । देखा तुमने? यह प्रतीक है कि कृष्ण अर्जुन के सारथी बने। यह अलक्ष्यस्फुरणा का प्रतीक है। भगवान तुम्हारा सारथी बने, उसके हाथ में तुम्हारे रथ की बागडोर हो। वही चलाये। तुम बैठो भीतर निश्चितमन। वह जहां ले जाये, जाओ। भगवान सारथी बने, तुम रथ में चुपचाप बैठो। - वही सारथी है। तुम नाहक बीच-बीच में आ जाते। तुम्हारे बीच में आने से अड़चन पड़ती। तुम्हारे जीवन में अगर दुख है तो तुम्हारे कारण। अगर कभी सुख होगा तो उसके कारण है। शुद्धस्फुरणरूपस्य दृश्यभावमपश्यतः । और जिस व्यक्ति के जीवन में शुद्ध स्फुरणा का जन्म हुआ उसको फिर दृश्य दिखाई भी पड़ते हैं और एक अर्थ में नहीं भी दिखाई पड़ते, क्योंकि अब तो द्रष्टा दिखाई पड़ता है। इसे समझो। तुम जब देखते हो तो तुम स्वयं को नहीं देखते, पर को ही देखते हो। तुम्हारा बोध का तीर दूसरे पर लगा होता है। तुम स्वयं को नहीं देखते। तुम देखने वाले को नहीं देखते। जो मूल है उसे चूक जाते हो। तुम परिधि पर भटकते रहते हो। जिस व्यक्ति ने अपना हाथ परमात्मा के हाथ में दे दिया और कहा, अब तू सम्हाल | अब एक बडी मजेदार घटना घटती है। वह तुम्हें तो देखता है लेकिन तुमसे पहले वह जो भीतर छिपा है वह दिखाई पड़ता है। वह वृक्ष को देखता है लेकिन वृक्ष के पहले वृक्ष को देखनेवाला दिखाई पड़ता है। वृक्ष गौण हो जाता है। दृश्य गौण हो जाता है, द्रष्टा प्रमुख हो जाता है, आधारभूत हो जाता है। तब संसार गौण हो जाता है और सत्य आधारभूत हो जाता है। 'दृश्यभाव को नहीं देखते हुए शुद्ध स्फुरणवाले को कहां विधि है!' फिर उसके मन में दृश्य के कोई भाव नहीं उठते - कि ऐसा देखूं, ऐसा देखूं, वैसा देखूं । ये कोई भाव नहीं उठते। जो दिखाई पड़ जाता है ठीक, जो नहीं दिखाई पड़ जाता, ठीक। वह हर हाल राजी है। ऐसी जो दशा है इसमें न तो त्याग की कोई जरूरत है, न वैराग्य की कोई जरूरत है, न विधि की कोई जरूरत है, न दमन और शमन की कोई जरूरत है।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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