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________________ पूरी महागीता खो जाए, तो कुछ हानि न होगी। जनक ने ठीक-ठीक संक्षिप्त कर दिया है। जैसे बीज से वृक्ष होता और फिर वृक्ष में बीज लग जाते हैं, ऐसी एक छोटी-सी जिज्ञासा जनक ने उठायी थीबीज की तरह थी जिज्ञासा - अष्टावक्र ने उसका वृक्ष किया, अब जनक फिर उसे बीज किये दे रहे हैं। फिर संक्षिप्त किये दे रहे हैं। फिर सूत्र में बांधे दे रहे हैं। उनकी अड़चन समझी जा सकती है। उनकी बेचैनी भी समझी जा सकती है। कुछ भी देकर धन्यवाद हो नहीं सकता। जीव भर का सुबरन देकर भी करता मन दे दूं कुछ और अभी तन अंगीकार करो मन-धन स्वीकार करो लोभ-मोह - भ्रम लेकर प्राण निर्विकार करो प्रति पल प्रति याम दूं सवेरे दूं शाम दूं जब तक पूजा - प्रसमन देकर भी करता मन दे दूं कुछ और अभी भक्ति-भाव अर्जन लो शक्ति साध सर्जन लो अर्पित है अंतर्तम अहं का विसर्जन लो जन्म लो मरण ले लो स्वप्न - जागरण ले लो चिर संचित श्रम साधन देकर भी करता मन दे दूं कुछ और अभी यह नाम तुम्हारा हो धन-धाम तुम्हारा हो
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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