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________________ लेकिन कोई बेदखल करता भी नहीं, तुम खुद ही सपनों से उलझे हुए अपने हाथ से बेदखल हो जाते हो। और जीवन भर हम जो भी चाहते हैं, करते हैं, सब सपनों का जाल है। ऐसे हो जाएं, ऐसे बन जाएं, यह पा लें, लोग ऐसा जानें कि हम ऐसे हैं, इन्हीं सब में खोए-खोए एक दिन खो जाते हो। ऐसा डोलते, डांवाडोल होते, इन्हीं तरंगों में डूबे -डूबे, धक्के-मुक्के खाते कब में गिर जाते हो। श्यामल यमुना से केशों में गंगा करती वास है भोगी अंचल की छाया में सिसक रहा संन्यास है मेंहावर-मेहदी, काजल-कंघी गर्व तुझे जिन पर बड़ा मुट्ठी भर मिट्टी ही केवल इन सबका इतिहास है नटखट लटका नाग जिसे तुम भाल बिठाए घूमती अरी, एक दिन तुझको ही इस लेगा भरे बाजार में कोई मोती गूंथ सुहागिन तू अपने गलहार में मगर विदेशी रूप न बंधनेवाला है श्रृंगार में कितने ही सपने देखो, कितनी ही योजनाएं बिठाओ, कितनी ही परिकल्पनाएं दौड़ाओ, कितना ही श्रम करो, सपनों में कोई सुंदर नहीं हो पाता और सपनों में कोई सत्य नहीं हो पाता। एक तो जागृति है तुम्हारी वह भी सपनों से ही भरी है। सपने तो सपने से भरे ही हैं। और फिर एक दशा है जिसका तुम्हें थोड़ा- थोड़ा एहसास है-सुषुप्तिा जहां तुम बिलकुल खो जाते। इन तीन में आदमी डोलता रहता है। और चौथी आदमी की असलियत है। इन तीन में ही भटकता रहता है। इन तीन के पीछे ही धक्के खाते रहता है-यहां से वहां। जाग गये, फिर सो गये, फिर सपना देखा, फिर जाग गये, फिर सो गये, फिर सपना देखा, फिर जाग गये, ऐसा इन त्रिकोण में घूमता रहता है। और आदमी चौथा है-तुरीया'दि फोर्थ | चौथे का अर्थ है, साक्षी। चौथे का अर्थ है, जो देखता सपनों को, जो सपना नहीं है। सुबह उठकर तुम कहते हो, रात एक सपना देखा। तो निश्चित देखने वाला अलग रहा, अन्यथा कैसे देखते-सुबह कैसे कहते कि सपना देखा, कौन कहता? और किसी दिन सुबह तुम कहते हो कि रात बड़ी गहरी नींद सोए, ऐसी गहरी नींद, ऐसी अमृतमयी नींद कभी नहीं सोए थे। सब ताजा-ताजा हो गया है, स्वच्छ हो गया है। नये हो गये। तो निश्चित गहरी नींद में भी कोई देखता था कि बड़ी गहरी नींद है। किसको यह अनुभव हुआ? जिसको यह सारे अनुभव होते हैं, वही तुम हो। द्रष्टा तुम हो, साक्षी तुम हो। भोक्ता बन गये, कर्ता बन गये, तो खो गये सपनों में। फिर तुम इसे जागरण कहो, आख खोलकर देखा हुआ सपना कहो कि आख बंद करके देखा हुआ सपना कहो, मगर तुम जहां भोक्ता बन गये, कर्ता बन गये, वहीं तुम स्मृत हो गये। वहीं तुम स्वस्थ न रहे। वहां अपने केंद्र पर न रहे। अब इस सूत्र को समझो'जो सुषुप्ति में भी नहीं सुप्त है।'
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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