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________________ तुरीय को जो उपलब्ध हो गया, चौथी अवस्था जिसने पा ली, जिसने अपनी असली अवस्था पा ली, स्वभाव पा लिया, ऐसा व्यक्ति सुषुप्ति में भी सुप्त नहीं है। वह सोया भी है और जागा भी है। बाहर से देखोगे तो सोया है। उसके भीतर से देखो तो पाओगे जागा है। इसीलिए तो कृष्ण कहते हैं. 'या निशा सर्वभूतानाम् तस्याम् जागर्ति संयमी।' सब जहां सोए, सबके लिए तो निशा है, अंधेरी रात है, वहां भी संयमी जागा हुआ है। वहा भी जागा है। जागरण अखंड है, अविच्छिन्न है। संयमी सोता ही नहीं। उसके भीतर एक दिया जलता रहता है, गहरी से गहरी अंधेरी अमावस में भी उसके भीतर दिया जलता ही रहता है। उसका घर रोशनी से कभी खाली नहीं होता। है तो हालत तुम्हारी भी यही। दीया तो तुम्हारा भी जल रहा है, लेकिन तुम्हें स्मरण नहीं। तुम भी दीये हो, वैसे ही दीये जैसे कृष्ण, वैसे ही दीये जैसे बुद्ध, वैसे ही दीये जैसे अष्टावक्र, रत्तीभर कम नहीं कोई तुमसे रत्तीभर ज्यादा नहीं था लेकिन तुम लौटकर देखते ही नहीं। बाहर उलझे हो। ऐसा समझो कि कोई आदमी खिड़की पर खड़ा, खड़ा, खडा बाहर के दृश्य में इस तरह भूल गया है, रास्ते पर चलते सब लोगों को देखता है, सिर्फ एक की याद नहीं आती, जो खिड़की पर खड़ा होकर देख रहा है। उसकी भर याद भूल गयी है। और सब याद में है, अपनी भर सुध खो गयी है। जागृति का अर्थ है, वस्तु जगत पर ध्यान। ये वृक्ष, ये पर्वत, ये पहाड़, ये चांद-सूरज, ये लोग, इन पर ध्यान। जाग्रत-अपने पर ध्यान नहीं, वस्तुओं पर ध्यान। स्वप्न-शब्दों पर ध्यान, विचारों पर ध्यान। प्रतीकों, बिंबों पर ध्यान। कल्पनाओं पर ध्यान। अपने पर ध्यान नहीं। सुषुप्ति न तो वस्तुएं हैं अब, न विचार हैं, लेकिन फिर भी अपने पर ध्यान नहीं। तुरीय-अपने पर ध्यान। ___ जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तीनों में एक बात समान है-अपने पर ध्यान नहीं। जाग्रत में वस्तुओं पर, स्वप्न में कल्पनाओं प र, सुषुप्ति में किसी पर नहीं, अपने पर भी नहीं, गैर- ध्यान की अवस्था। तुरीय में अपने पर ध्यान। और जैसे ही तुरीय में अपने पर ध्यान आया, फिर तुम सब क्रियाओं में होकर भी कर्ता नहीं रहोगे। फिर तुम सब दृश्यों को देखकर भी द्रष्टा ही बने रहोगे। एक क्षण को आत्म-विस्मृति न होगी। ___'जो सुषुप्ति में भी नहीं सुप्त है और जो स्वप्न में भी नहीं स्वप्नाया है जाग्रत में भी नहीं जागा हुआ है, वह धीरपुरुष क्षण-क्षण तृप्त है।' अब न तो सोने में सोना है, न सपने में सपना है, न जागने में जागना है, क्योंकि अब तो एक नया स्वर उसके भीतर उठ गया है-तुरीय का, चौथे का। अब तो हर हालत में वह चौथा है। बाहर कुछ भी होता रहे, भीतर वह चौथा है। ऐसा हुआकबीर के जीवन में एक अनूठा उल्लेख है। कबीर की ख्याति फैलने लगी फैलनी ही चाहिए थी, ऐसे कमल कभी-कभी खिलते हैं। अपूर्व कमल खिला था। सुगंध पहुंचने लगी लोगों तक। लेकिन अड़चन थी। कबीर का अस्तित्व परंपरागत तो नहीं था कभी किसी शानी का नहीं रहा। परंपरा मुर्दो की होती है, जिंदा आदमियों की नहीं होती। तो यह भी पक्का नहीं था कबीर हिंदू हैं कि मुसलमान हैं। मेरे संबंध में पक्का है? कि हिंदू हूं कि मुसलमान हूं? पक्का हो ही नहीं सकता।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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