SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिनांक 3 फरवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम, पूना । प्रश्न सारः पहला प्रश्न : मन मूर्च्छा है- (प्रवचन - नौवां ) मैं साक्षीभाव को जगाने के लिए आत्मविश्लेषण, 'इंट्रॉस्पेक्यानं करता हूं। क्या यह पहले कदम के रूप में सही है ? कृपापूर्वक समझाएं। आत्मविश्लेषण तो विचार की प्रक्रिया है, और साक्षी है निर्विचार की दशा । विचार से निर्विचार के लिए कोई मार्ग नहीं जाता। विचार को छोड़ने से निर्विचार का अवतरण होता है। तो आत्मविश्लेषण तो कतई सही मार्ग नहीं है, अगर साक्षी बनना है। विश्लेषण का तो अर्थ हुआ, सोचना । साक्षी का अर्थ होता है, बिना सोचे देखना । मात्र जागकर देखना। एक विचार उठा मन में, विश्लेषण तो तत्क्षण निर्णय लेता है- अच्छा है विचार, बुरा है विचार, करने योग्य , न करने योग्य है ! इस विचार में पडूं ? न पडूं ? इसे हटाऊं, या सजाऊं, संवारूं, सिंहासन पर बिठाऊं? एक तो विचार उठा, उतना ही काफी था तुम्हें भटकाने के लिए, अब और विचार पर विचार उठे। तुमने और जाल बढ़ा लिया। तुम और जंजाल में पड़े। ये सीढ़ी साक्षी की ओर जाने की न हुई, साक्षी से दूर जाने की हुई। तुमने विपरीत दिशा पकड़ ली। अब तुम क्या करोगे? ये जो विचार उठे विचार के प्रति, अगर इनका भी तुम विश्लेषण करो तो और विचार उठेंगे। तो विश्लेषण अगर ठीक-ठीक आत्यंतिक रूप से किया जाए तो तुम विक्षिप्त हो जाओगे। क्योंकि विश्लेषण का तो कोई अंत नहीं है। एक विचार को विश्लेषण करने के लिए और विचार चाहिए, उन विचारों को विश्लेषण करने के लिए फिर और विचार चाहिए, फिर विचार के पीछे विचार, फिर तो तुम एक जंगल खड़ा कर लोगे विचारों का । और तुम कहां उसमें खो जाओगे, पता भी न चलेगा। एक ही विचार डुबाने को काफी है, चुन्न भर पानी डुबाने को काफी है, तुमने सागर खड़ा कर लिया। तुम भटक ही जाओगे । आत्मविश्लेषण साक्षी का मार्ग नहीं है। इसलिए पश्चिम साक्षी की धारणा को उपलब्ध नहीं
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy