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________________ करते-करते जो बोध हुआ अब उसे फिर कैसे भाषा और द्वंद्व के जगत में प्रगट करें! तो अष्टावक्र कहते हैं, आत्मविश्रातितृप्तेन हो जाता है तृप्त आत्मा में विश्रांति को पाकर । निराशेन गतार्तिना । सब संसार की आशा से मुक्त, स्पृहा से मुक्त, शोक से रहित, पर बड़ी अड़चन होती है। एक अड़चन होती है ज्ञानी को भी, एक अड़चन ही होती है बस कि अब जो मिला है इसे कैसे बांटे ? अब जो पा लिया, उसे कैसे फैलाएं? कैसे निवेदन करें? जो अंधेरे में भटक रहे हैं, उन्हें यह प्रकाश की खबर कैसे पहुंचाएं? अंतर्यदनुभूयेा इतने भीतर का अनुभव कैसे बाहर लाएं। तत्कथं कस्य कथ्यते । किससे कहें? वे कान कहां जो सुनेंगे। वे आंखें कहां जो देखेंगी? वे प्राण कहां जो समझेंगे? किससे कहें? और अगर कभी कोई जानने-समझने वाला मिल जाए, तो कहने का कोई अर्थ नहीं। ऐसी दुविधा है परमबुद्धों की। बस एक ही दुविधा रह जाती है बुद्धत्व में और वह दुविधा है, जो मिला है उसे कैसे बांटे ? वह दुविधा भी करुणा की दुविधा है। आज इतना ही।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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