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________________ निराशेन गतार्तिना। और जो अब बाहर की सब स्पृहा से, सब आशाओं से मुक्त हो गया। निराशेन गतार्तिना अंतर्यदभूयेत। अब उसके भीतर ऐसे-ऐसे अनुभव होंगे, ऐसे -ऐसे अनुभव के द्वार खुलेंगे ऐसा गीत बजेगा, ऐसा नाद उठेगा.। तत्कथं कस्य कथ्यते। कि अब उसे किससे कहें और कैसे कहें! अब न तो कोई पात्र मिलेगा उसे जिससे कह सके। क्योंकि जो भी पात्र हो, उसको कहने की जरूरत न होगी; जो भी पात्र होगा, वह तभी पात्र होगा जब उसने भी उस नाद को सुन लिया हो, उसको क्या कहना, वह तो पुनरुक्ति होगी। और जिसने अभी उस नाद को नहीं सुना वह अपात्र है, उससे क्या कहना, वह तो समझेगा नहीं। उसे किसको और कैसे कहा जाए! तत्कर्थ कस्य कथ्यते। कहो तो कैसे! और कहो तो किससे कहो! कोई पात्र नहीं मिलता। दो बुद्धपुरुष मिलें तो बोलने को कुछ नहीं क्योंकि दोनों का अनुभव एक है, अब बोलना क्या! दो बुद्धपुरुष तो ऐसे होंगे जैसे तुमने दो शुद्ध दर्पण, शुद्धतम दर्पण एक-दूसरे के सामने रख दिये। कोई प्रतिबिंब न बनेगा। दर्पण में दर्पण झलकेगा, क्या प्रतिबिंब बनेगा! कुछ भी प्रतिबिंब न बनेगा। दो स्वच्छतम दर्पण अगर एक-दूसरे के सामने रखे हों तो कुछ प्रतिबिंब नहीं बनेगा। दर्पण में दर्पण, दर्पण में दर्पण झलकता रहेगा, लेकिन प्रतिबिंब कुछ भी न बनेगा, आकृति कुछ भी न उठेगी। दो बुद्धपुरुष अगर मिलें, तो कह सकते हैं, लेकिन कहने में कोई सार नहीं। __ और अगर बुद्धपुरुष को अशानी से मिलन हो जाए, तो कहने में सार है, लेकिन कह नहीं सकते। सार तो है! क्योंकि यह अज्ञानी अभी जानता नहीं, इसे अगर जनाया जा सके तो शायद इसके जीवन में अंकुरण हो, यात्रा शुरू हो, प्यास जगे, मगर कैसे इसे जनाओ! क्योंकि जो अनुभव हुआ है वह शब्दातीत है। जो भीतर, भीतर, भीतर जाकर जाना है, वह कुछ ऐसा है कि अब किसी इंगित में बंधता नहीं, किसी शब्द में समाता नहीं, किसी ढंग से उसे कहा नहीं जा सकता। अकथ्य है। अंतर्यदनुभूयेत। जो भीतर जाना है उसे बाहर लाने का उपाय नहीं। वह भीतर का है और भीतर ही है और बाहर नहीं आता। बाहर लाओ कि गड़बड़ हो जाती है। ऐसा समझो कि सागर के भीतर कितनी शाति है, एक भी लहर नहीं उठती। अब उस शाति को तुम बाहर ले आओ सतह पर तो लहर ही लहर हो जाती है। यह शांति बाहर नहीं लायी जा सकती, वह तो तुम जाओ सागर की गहराई में तो ही जानोगे। लहरों के जगत में सागर की गहराई को कैसे लाएं? वह भी लहर हो जाएगी, वह भी बाहर बन कर बिखर जाएगी। शब्द के तल पर उसे कैसे लाएं जो शून्य में जाना गया है? जो मिटकर जाना गया है, जो न होकर जाना गया है। जहां सब नेति नेति
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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