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________________ बजे, और यह डिब्बा वहीं कटेगा, तुम बाहर जाकर देख सकते हो, इस पर लिखा है कि यह डिब्बा वहीं कटेगा, फिर भी तुम्हें भरोसा नहीं आता! फिर पांच बजे से उन्होंने तैयारी शुरू कर दी। तैयारी देखकर मैं बड़ा हैरान हुआ| क्योंकि कोई और कोई तैयारी करे, समझ में आता है। अब इनके पास तैयारी करने को कुछ था भी नहीं। एक टाट लपेटे थे, एक टाट टोकरी में रखा हुआ था। मगर उनको मैंने देखा कि वह आईने के सामने खड़े होकर टाट जमा रहे हैं, बार-बार उसको देख रहे हैं कि ठीक आ गया कि नहीं। क्या फर्क हुआ? टाट बांधने से तो सरलता नहीं हो जाएगी! टाट बांधने में भी जटिलता है। दरिद्र हो जाने से तो सरलता नहीं हो जाएगी! दरिद्रता में भी लोभ तो छिपा है। साधु होने से सरलता तो नहीं हो जाएगी! क्योंकि इतना भी भरोसा नहीं है कि इतने लोग कह रहे हैं कि छ: बजे पहुंचेगी, तो पहुंचेगी। इतनी क्या घबड़ाहट! और साधु इधर-उधर चला भी गया आगे-पीछे तो क्या फर्क पड़ता है। है भी क्या, न पहुंचे भोपाल तो क्या बिगड़ता है! इतनी क्या घबड़ाहट है! नहीं लेकिन, हिसाब-किताब है। और वह जो सरलता भी है, टाट बांध जो रखा है, उसमें भी आयोजन है। अब तुम फर्क समझना। एक स्त्री अपने साथ बैग रखे होती है, आईना रखे होती है, पाउडर रखे होती है, समझ में आती है बात। लेकिन इस वेनिटी बैग में और इन सज्जन के टाट को संभालने में क्या भेद है? ऊपर से भेद बड़ा दिखता है! संभालने को मखमल नहीं है, लेकिन टाट भी संभाला जा सकता है। टाट का भी श्रृंगार हो सकता है। टाट के पीछे भी विशिष्ट होने की आकांक्षा हो सकती है। तो सब व्यर्थ हो गया। निष्कपट, सरल और कृतार्थ योगी.।' सरलता साधी नहीं जा सकती, चेष्टित नहीं हो सकती, सरलता तो समझ से आए तो ही। इसलिए अष्टावक्र का पूरा जोर है बोध पर, होश पर। समझो, जागकर जीवन को देखो और सरलता अपने - आप आती है। तुम उसे आयोजित मत करना। आयोजित सरलता सरलता नहीं रह जाती।' आत्मा में विश्राम कर तृप्त हुए और निस्पृह और शोकरहित पुरुष के अंतस में जो अनुभव होता है उसे किसको और कैसे कहा जाए!' बड़ा अनूठा वचन है। आत्मविश्रातितृप्तेन निराशेन गतार्तिना। अंतर्यदनुभूयेत तत्कर्थ कस्य कथ्यते।। जो अपनी आत्मा में विश्राम को उपलब्ध हो गया, जो पहुंच गया अपने भीतर जो चैतन्य के क्षीरसागर में हो गया, विष्णु बनकर लेट गया अंतस के क्षीरसागर में, जो विश्राम को उपलब्ध हो गया है। आत्मविश्रातितृप्तेन। और वहीं है तृप्ति-उसी विश्रांति में, उसी विराम में; उसी विराम में है आनंद, परितोष।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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