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________________ संभालना मुश्किल होता जा रहा है। देश गरीब है, भीड़ बढ़ती जा रही है, और ये बीस लाख भिक्ष! ये छाती पर बैठे हैं। तो थाईलैंड की सरकार को कानून बनाना पड़ा है कि इनको श्रम करना पड़ेगा। अब ये बौद्ध भिक्षु की बड़ी मुश्किल हो गयी है, बात उसके शास्त्र के विपरीत है कि वह श्रम करे। हल-बक्सर उठाए। मेहनत करे, यह तो उसके विपरीत है। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं कि यह घटना सारी दुनिया में घटनेवाली है। इस देश में भी घटेगी, आज नहीं कल। इसलिए मैं एक नये संन्यास का सूत्रपात कर रहा हूं जो किसी पर निर्भर नहीं है। जो भिखारी का संन्यास नहीं है। तुम जहां हो, घर में, जैसे हो, वैसे ही संन्यस्त हो। तुम्हारे संन्यास को कोई सरकार छीन न सकेगी। पुराना संन्यास तो गया, उसके दिन लद चुके! अब वह कहीं बच नहीं सकता। क्योंकि पुराना संन्यासी तो अब शोषक मालूम होने लगा। है भी शोषक। दूसरों के श्रम पर जीता है। अपना श्रम करो! तुम्हें ध्यान करना है, तुम्हें समाधि लगानी है, तो श्रम कोई दूसरा करे, तुम समाधि लगाओ! यह बेईमानी ठीक नहीं। कोई कंकड़-पत्थर तोड़े और तुम बैठकर मंदिर में पूजा करो! यह बात ठीक नहीं। तुम्हें मंदिर में पूजा करनी है, कंकड़-पत्थर तोड़ लो, समय बचाओ, पूजा कर लो। पूजा का समय खरीदो। श्रम से खरीदो। मुफ्त मत मांगो। अब नहीं मुफ्त के दिन चलेंगे। और मुफ्त के कारण बहुत से मुफ्तखोर संन्यासी हो गये थे सौ में निन्यानबे बेईमान संन्यासी हो गये थे। जिनको कुछ नहीं करना था, जो किसी तरह झंझट से बचना चाहते थे, या योग्य भी नहीं थे कुछ करने के, वे संन्यासी हो गये थे। इसलिए एक नये संन्यास की अत्यंत जरूरत है जगत में। जिसका संन्यास संसार के विरोध में है, वह ज्यादा दिन टिकेगा नहीं। अब एक ऐसा संन्यास ही टिकेगा जो संसार में है और संसार के बाहर भी। अब ऐसा संन्यासी, जो जीवित भी है और मृत भी। जो पानी में चलता भी है और पानी जिसके कदमों को छूता भी नहीं। संसार में होकर भी जो संसार के बाहर है, वही बचेगा। तो मैं अष्टावक्र के इस सूत्र का ऐसा अर्थ कर भी नहीं सकता, क्योंकि अष्टावक्र की पूरी धारणा से इसकी संगति नहीं है। अष्टावक्र संसार-त्याग के पक्षपाती नहीं हैं, संसार का बोध चाहिए। ज्ञान के पक्षपाती हैं। कर्मत्याग के नहीं। मेरी व्याख्या कुछ और है। तुष्टि: सर्वत्र धीरस्य यथापतितवर्तिनः।। 'यथाप्राप्त से संतुष्ट।' जो मिले परमात्मा से, उससे ज्यादा न मांगे। जितना मिले, उससे रत्ती भर ज्यादा न माये। जितना मिले, उसके लिए धन्यभाग! आभार स्वीकार करे। ऐसे व्यक्तियों को मैं कहता हूं-यथाप्राप्त से संतुष्ट। 'देशों में स्वच्छंदता से विचरण करनेवाला।' और मैं बाहर के देश की बात नहीं करता, अष्टावक्र भी बाहर के देशों की बात नहीं कर रहे हैं। यह कोई भूगोल थोड़े ही है, जो हम अध्ययन कर रहे हैं। यह अध्यात्म है। यहां हिंदुस्तान से पाकिस्तान में गये और पाकिस्तान से चीन में गये, इसकी बात नहीं हो रही है। यहां तो तुम्हारे भीतर
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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