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________________ इतने अंतर देश हैं, एक देश से भीतर दूसरे देश में जाना है। तुम्हारे पूरे अंतर- आकाश का अनुभव लेना है। तुम कुछ छोटे थोड़े ही हो भीतर, भीतर तुम बड़े विराट हो। यह पृथ्वी बड़ी छोटी है। तुम उतने ही विराट हो जितना यह विश्व है। तम्हारे भीतर इतना ही बड़ा आकाश है जितना बड़ा आकाश तुम्हारे बाहर है। ये बाहर और भीतर दोनों संतुलित हैं। ये समान हैं। इनका अनुपात एक है। इन भीतर के आकाशों में प्रवेश करना है। इन भीतर के देशों में प्रवेश करना है। यहां भीतर नर्क हैं, यहां भीतर स्वर्ग हैं, यहां भीतर मोक्ष भी है। यहां भीतर क्रोध का देश है, यहां भीतर घृणा का देश है, यहां भीतर प्रेम का, करुणा का देश भी है। यहां भीतर मोह है, लोभ है, त्याग है, वैराग्य है, वीतरागता है। यहां भीतर बड़ी-बड़ी भूगोल है-अंतर की भूगोल है। यहां स्वच्छंदता से विचरण करना है, ताकि तुम अपने पूरे अंत-प्रदेशों से परिचित हो जाओ। तो मैं कहता हूं अंतर्देशों में स्वच्छंदता से विचरण करनेवाला। अभी पश्चिम में स्पेस शब्द का ठीक ऐसा ही अर्थ होने लगा है जैसा मैं अर्थ कर रहा हूं-अंतर्देश। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम भीतर की एक ऐसी स्पेस में पड़ गये हैं-एक भीतर के ऐसे अंतदेंश में आ गये हैं-जहां बड़ी शांति है। या बड़ा दुख है, कि बड़ी उदासी है। जैसा आज पश्चिम में स्पेस शब्द का अर्थ हो रहा है, वैसा ही कभी इस देश में अंतर्देश शब्द का उपयोग होता था। वह आध्यात्मिक शब्द है। और वहां स्वच्छंदता चाहिए। क्योंकि अगर बंधे-बंधे चले, तो तुम अपने अंतर्जीवन से पूरे परिचित न हो पाओगे। सब जानना है। क्रोध को भी जानना है भीतर, तो ही क्रोध से मुक्त हो सकोगे। जो जान लिया, उससे मुक्त हो गये। जिसे पहचान लिया, उससे छुटकारा हो गया। सब जानना है। भीतर के नर्क भी जानने हैं, तो ही तुम नर्क से छूट सकोगे। भीतर के स्वर्ग भी जानने हैं, तो तुम स्वर्ग से भी छूट सकोगे। और जो व्यक्ति अपने भीतर के समस्त लोकों को जानकर सबके पार हो गया लोकातीत-वही वीतराग है। वही धीरपुरुष है। स्थिर- धी। कहें बुद्धपुरुष, जिन, जो भी नाम देना चाहें। 'जो अपने अंतर्देशों में स्वच्छंदता से विचरण करने वाला।' स्वच्छंद चरतो देशान्। ये भीतर के देश और इनमें स्वच्छंदता का विचरण। 'और जहां सूर्यास्त हो, वहीं शयन करने वाला।' फिर भीतर सूर्यास्त का क्या अर्थ होगा? और वहीं शयन करने का क्या अर्थ होगा? समझें। जैसे बाहर दिन और रात है, ऐसे ही भीतर भी दिन और रात है। जैसे बाहर सूरज काता और डूबता है, ऐसे ही भीतर बोध का उदय होता है और बोध का अस्त होता है। दो तरह से हम इस विभाजन को समझ सकते हैं। एक, आत्मा-साक्षी-और शरीर। और इन दोनों के बीच जोड़नेवाला मन। आत्मा तो है प्रकाश, ज्योति, बोध, सूर्य। शरीर है अंधकार, तमस, अमावस। एक तरफ शरीर है-मृत्यु और एक तरफ आत्मा
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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