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________________ हाथ से बुद्ध अंतिम भोजन ग्रहण करते हैं, वह बहुत धन्यभागी है! दो व्यक्ति धन्यभागी हैं। क वह मां, जो बुद्ध को पहली दफा स्तनपान कराती है, जन्म के समय । और एक वह व्यक्ति जो उन्हें अंतिम भोजन कराता है। और लोग कहने लगे यह आप क्या कह रहे हैं, किसलिए यह कह रहे हैं? उन्होंने कहा, इसलिए मैं कहता हूं अन्यथा मेरे मरने के बाद उस गरीब को लोग मार डालेंगे। वह बच न सकेगा। जाकर गांव में घोषणा कर दो कि दो व्यक्ति अत्यंत धन्यभागी होते हैं। ऐसा प्रेम ! और मृत्यु के संबंध में ऐसी निश्चितता!! निश्चित स्वशरीरेऽपि निराश: शोभते बुधः । और एक बड़ी अनूठी बात कह रहे हैं निराश: शोभते बुधः । बुद्धपुरुषों को निराशा भी शोभायमान होती है। तुम तो आशा से भरे भी शोभायमान नहीं होते। तुम्हारी आंखों में तो कितने आशा के दीप जलते - ऐसा होगा, ऐसा होगा, ऐसा हो जाएगा ! कितनी कामनाएं अंधड़ की भांति तुम्हारे चित्त में बहती हैं। भविष्य के कितने सुंदर सपने! कितनी आशाओं को संजोए तुम चलते हो। फिर भी तुम शोभायमान नहीं हो। तुम्हारी आशाएं भी तुम्हारी आंखों में दीये जलाती नहीं मालूम होतीं। तुम्हारी आशाएं भी तुम्हें रुग्ण करती मालूम होती हैं। लेकिन बुद्धपुरुष निराश होकर भी बुद्धपुरुष का अर्थ ही है, जो परिपूर्णरूप से निराश हो गया। जिसने जान लिया कि जगत में कोई आशा पूरी हो ही नहीं सकती। जिसकी निराशा समग्र है। आत्यंतिक है। जिसकी निराशा परिपूर्ण हो गयी, जिसमें रत्ती भर शंका नहीं रही है उसे । इस जगत में कोई आशा पूरी होती ही नहीं, जिसने ऐसा सघन रूप से जान लिया। मगर फिर भी इस परमनिराशा में बुद्धपुरुष सिंहासन पर विराजमान होते हैं। उनकी शोभा अदभुत है। इस निराशा में ही उनके जीवन का फूल खिलता है। जब बाहर कुछ पाने को नहीं, तो ऊर्जा सब भीतर लौट आती है। जब बाहर कोई दौड़ न रही, तो भीतर वे विराजमान हो जाते हैं अपने केंद्र पर। स्वस्थ हो जाते हैं। स्वयं में स्थित हो जाते हैं। इस स्थिति में ही असली सिंहासन है। परमपद है। निराश: शोभते बुधः। तुम्हारे रूप के अनुरूप संज्ञाएं चयन कर लूं तुम्हारी ज्योति-किरणें देखने लायक नयन कर लूं अभी अच्छी तरह आंखर अढ़ाई पढ़ नहीं पाया प्रेम की व्याकरण का और गहरा अध्ययन कर लूं निकल पाया नहीं बाहर अहम् के इस अहाते से जरा ये बांह धरती और ये आंखें गगन कर लूं तुम्हारे रूप के अनुरूप संज्ञाएं चयन कर लूं तुम्हारी ज्योति - किरणें देखने लायक नयन कर लूं परम सत्य तो पास है। पास कहना ठीक नहीं, क्योंकि पास में भी दूरी मालूम होती है। परम
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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