SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बिना मैं सुखी न हो सकूगा| विरागी कहता है, इसके रहते मैं सुखी न हो सकूँगा। लेकिन दोनों का सुख इसी पर निर्भर है। एक का सुख इस बात पर निर्भर है कि संसार को जीतू तो सुखी होऊंगा। एक का सुख इस बात पर निर्भर है कि संसार को छोडूं? त्यागू तो सुखी होऊंगा। लेकिन दोनों के सुख संसार पर निर्भर हैं। ज्ञानी न तो भोगी है, न त्यागी है। न रागी, न विरागी। ज्ञानी है वीतराग दशा। देख लेता है, यहां न तो कुछ राग को है, न विराग को है। न पकड़ने को, न छोड़ने को। इस घटना में ही आत्मवान हो जाता है। और जो आत्मवान हो गया, उसको फिर आत्मा को देखने का भी सवाल कहां! और आत्मा को देखा भी कहां जा सकता है! यह शब्द, आत्मदर्शन शब्द ठीक नहीं है। क्योंकि जो भी हम देख सकते हैं, वह हमसे पराया होगा। हम 'पर' को ही देख सकते हैं। दर्शन तो दूसरे का ही हो सकता है। स्वयं का तो दर्शन कैसे होगा! तुमने इस पर कभी विचार किया? देखने में तो दो मौजूद हो गये-देखनेवाला और दिखाई पड़नेवाला। द्रष्टा और दृश्य। आत्मा तो द्रष्टा है। इसलिए आत्मा कभी भी दृश्य नहीं हो सकती। जो भी दृश्य है, सब संसार है। इसलिए मेरे पास तुम जब आकर कहने लगते हो कि कुंडलिनी जगने लगी, तो मैं कहता हूं,देखते रहो, मगर ज्यादा उलझना मत। क्योंकि जो भी दृश्य है, वह संसार है। तुम कहते हो, भीतर बड़ी रोशनी मालूम होने लगी, मैं कहता हूं,देखते रहो। तुम ध्यान रखो उस पर जो देखनेवाला है, रोशनी में बहुत ज्यादा मत उलझ जाना। अंधेरा तो डुबाता ही है, रोशनी भी डुबा लेती है। अंधेरा तो खतरनाक है ही, रोशनी भी बड़ी खतरनाक है। तुम तो उसका खयाल रखो, बस उसी एक सूत्र को पकड़े रही कि मैं देखनेवाला, मैं देखनेवाला। तुम दृश्य में उलझना ही मत। नहीं तो मन के बड़े जाल हैं। पहले वह बाहर के दृश्य दिखलाता है-वह देखो दूर दिल्ली, चलो, दिल्ली चलो। अगर तुम वहां से छूटे, तो वह भीतर के दृश्य दिखलाता है कि देखो कुंडलिनी जगने लगी, कैसी ऊर्जा उठ रही है। कैसा आनंद मालूम हो रहा है! कैसा मस्तिष्क में प्रकाश-ही-प्रकाश फैल रहा है! अब यह उसने नयी दिल्लियां बसानी शुरू कर दीं। तुम तो इतना ही खयाल रखो कि मैं द्रष्टा हूं। जो भी दिखायी पड़ता है, वह मैं नहीं हूं। जो भी अनुभव में आता है, वह मैं नहीं हूं। मैं तो सभी अनुभवों के पार खड़ा साक्षी हूं। इसलिए तुमसे मैं एक बात कहना चाहता हूं कि कोई अनुभव धार्मिक नहीं है सब अनुभव सांसारिक हैं। अनुभव मात्र सांसारिक हैं। जिसको अनुभव हो रहा है, वही धार्मिक है। तो उस घडी में पहुंचना है जहां सब अनुभव से छुटकारा हो जाए कोई अनुभव न बचे। तुम शुन्य में विराजमान। कोई अनुभव नहीं होता। शन्य का भी अनुभव होता रहे, तो अभी अनभव बाकी है। और मन थोड़ा-सा अभी भी बाकी है। जब शून्य का भी अनुभव न हो, जब कुछ भी अनुभव न हो, जब अनुभव मात्र तिरोहित हो जाएं, धुएं की रेखाओं की तरह खो जाएं, बस तुम रह जाओ चैतन्यमात्र, चिन्मात्र, बोधमात्र, बुद्धत्व फलित हुआ उसी को अष्टावक्र कहते हैं-धीरपुरुष। हर्षामर्षविनिर्मुक्तो।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy