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________________ बात है। जब जान लिया कि संसार व्यर्थ है, जब जान लिया कि संसार सार्थक नहीं, जब जान लिया कि संसार है ही नहीं, मात्र भासता है-रन्तु में सर्पवत् मृगमरीचिका है; खयालों का जमाव है, सपनों की भीड़ है; ऐसा जब जान लिया, तो सब वासनाएं व्यर्थ हो गयीं। क्योंकि जो नहीं है, उसको पाने की आकांक्षा का अब कोई मल्य न रहा। इस संसार में पद पाने का तची तक मूल्य है जब तक लगता है कि इस संसार में प्रतिष्ठा का कोई मूल्य है। इस संसार में कुछ अहंकार अर्जित करने का तभी तक मजा मालूम होता है जब तक लगता है कि अहंकार अर्जित हो सकता है। लेकिन अगर सब धोखा है, सब झूठ है, तो बात व्यर्थ हो गयी। जड से कट गयी बात। यहां तक तो समझ में आता है। लेकिन अष्टावक्र कहते हैं कि जिस दिन यह समझ में आ गया कि संसार व्यर्थ है, यह बाहर जो दिखायी पड़ रहा है यह केवल एक सपना है, उस दिन आत्मा को पाने की, खोजने की बात भी समाप्त हो गयी। पाना ही व्यर्थ हो गया, तो आत्मा को पाने की बात भी व्यर्थ हो गयी। असल में पाना जिस दिन व्यर्थ हो गया, उस दिन आत्मा पा ही ली। इसलिए अब आत्मा को पाने का सवाल नहीं उठता। थोड़ा जटिल है। थोड़ा सूक्ष्म है। लेकिन खयाल करोगे तो समझ में आ जाएगा। अगर तुम्हें संसार सौ प्रतिशत दिखायी पड़ रहा है, तो तुम शून्य प्रतिशत होते हो। जिस मात्रा में आत्मा का विस्मरण होता है, उसी मात्रा में संसार वास्तविक मालूम होता है। यह गणित है। जब संसार नब्बे प्रतिशत सत्य रहा, तो आत्मा दस प्रतिशत सत्य हो जाती है। जब संसार पचास प्रतिशत सत्य रहा, तो आत्मा पचास प्रतिशत सत्य हो गयी। जिस मात्रा में संसार से ऊर्जा तुम्हारी मुक्त होने लगी, संसार में नियोजन न रहा, उसी मात्रा में तुम्हारी ऊर्जा आत्मा में पड़ने लगी। तुम आत्मवान होने लगे। इधर वासना क्षीण हुई उधर आत्मा प्रबल हुई। इधर काम हारा, उधर राम जीते। एक ऐसी घड़ी आती है कि निन्यानबे प्रतिशत संसार व्यर्थ हो गया, उसी क्षण निन्यानबे प्रतिशत आत्मा तुमने जीत ली। जिस दिन सौ प्रतिशत संसार व्यर्थ मालूम हो गया, उस दिन सौ प्रतिशत आत्मा के तुम मालिक हो गये। तुम जिन हो गये। तुमने जीत लिया अपने को। महावीर को मानने से कोई जैन नहीं होता, संसार सौ प्रतिशत शून्य हो जाए और आत्मा सौ प्रतिशत पूर्ण हो जाए, तब कोई जिन होता है। ये किसी के शास्त्र में मानने न मानने की बातें नहीं हैं, ये किसी के पीछे न चलने चलने की बातें नहीं हैं, यह तो एक भीतर का गणित है। जो ऊर्जा संसार में उडेली जा रही थी यह सोचकर कि संसार सच है, अब संसार तो झूठ हो गया, वह ऊर्जा अब उडेली नहीं जाती, वह ऊर्जा अब स्वयं में थिर होने लगती है। यह स्वयं में जो थिरता है, यही आत्मवान होना है। तो जिसको दिखायी पड़ गया कि संसार में अब कुछ भी नहीं, दवेष करने योग्य भी नहीं-राग करने योग्य तो है ही नहीं, द्वेष करने योग्य भी नहीं है। तुम देखो, तुम्हें दुनिया में दो तरह के लोग दिखायी पड़ेंगे। एक तो जिनको तुम संसारी कहते हो, उनका संसार से राग है। और एक जिनको तुम विरागी कहते हो, उनका संसार से द्वेष है। मगर दोनों एक ही चीज से बंधे हैं। दोनों मानते हैं कि संसार बड़ा बलशाली है। रागी कहता है कि इसके
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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