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________________ समदुःखसुखस्तृप्तः। दोनों में समभाव आ गया है। इस समभाव की ही सारी खोज है इस देश में। जैन इसे कहते हैं, सम्यकत्व। लेकिन बात सम की है। बुद्ध कहते हैं, संतुलन, सम्यक| बात सम की है। हिंदू कहते हैं, समाधि-सम, आधि। बात सम की है। अगर एक छोटा-सा शब्द चुनना हो जिसमें पूरे पूरब की मनीषा समा जाती हो तो वह, सम। सम का अर्थ है, जिसके मन में न अब इधर डोलना रहा, न उधर डोलना रहा। न जो बायें झुकता, न दायें झुकता। क्योंकि इधर झुके तो खाई, उधर झुके तो कुआ। झुके कि भटके। जो झुकता ही नहीं। जो मध्य में खड़ा हो गया है। जो थिर हो गया, अकंप। समता, सम्यकत्व, समाधि। अंग्रेजी में भी, यूनानी-लैटिन में भी संस्कृत का यह सम शब्द बच रहा है। इसने अनेक थोड़े फर्क रूप ले लिये हैं, लेकिन बच रहा है। अंग्रेजी के शब्दों में 'सिन्धेसिस' में जो सिन है, वह सम का ही रूप है। सिस्फोनी' में। सिनाप्सिस' में। जहां -जहां सिन प्रत्यय है, वह सम का ही रूप है। सम चित्त की एक आंतरिक दशा है। ऐसी दशा, जहां कोई कंपन नहीं है। अकंप दशा। अगर तुम्हारे मन में शुभ की प्रशंसा है, अशुभ की निंदा है, तो तुम कैप गये। समझो तुम बैठे हो और एक दुष्ट आदमी निकल गया रास्ते से, तो तुम्हारे मन में कंपन पैदा हो जाएगा कि अरे! यह दुष्ट जा रहा है, इसे नरक में डाला जाए। या तुम्हारे मन में दया आ गयी और तुमने कहा इस दुष्ट को बचाना चाहिए, साधु बनाना चाहिए, तो भी तुम कंप गये। तुम जो बैठे थे अकंप, उसमें कंपन हो गया। तुम अब वही न रहे जो इस आदमी के निकलने के पहले थे। निकला कोई साधुपुरुष, कि महात्मा, कि तुम्हारे मन में हुआ अहो! धन्यभाग इस आदमी के! ऐसा सौभाग्य मेरा कब होगा? कैप गये। विचार उठ गया, समता खो गयी। सम स्थिति तब है, जब बुरा निकले कि भला, तुम वैसे ही रहे। तुम वैसे के वैसे रहे-जस के तस। जरा भी हिले -डुले न। सुख आया तो, दुख आया तो; सम्मान मिला तो, अपमान मिला तो, तुम वैसे के वैसे रहे, जरा भी न हिले। ऐसी समता की दशा को जो उपलब्ध हो जाए, उसे ही जानना कि निष्काम है। समदुःखसुखस्तृप्तः। और उसकी ही तृप्ति है। जो सुख-दुख में समानता को उपलब्ध हो गया है वही तृप्त है। अन्यथा दुखी तो तृप्त हैं ही नहीं, सुखी भी तृप्त नहीं हैं। तुमने खयाल किया? जब दुख होता है, तो दुख से छूटने की आकांक्षा प्रबल होती है कैसे छूट जाएं, वही तकलीफ होती है, तृप्त कैसे होंगे। दुख से कोई तृप्त होता है! दुख से छूटना चाहता है, हटना चाहता है, मुक्त होना चाहता है। लेकिन जब सुख होता है, तब भी तुम तृप्त होते हो? जब सुख होता है तब यह डर लगता है कि कहीं सुख छिन न जाए! कल एक युवा संन्यासी ने मुझे कहा कि अब मैं वापिस लौट रहा हूं अपने घर जितने दिन यहां था, बड़े सुख में बीते, बड़ी शांति में बीते। अभी भी चित्त बड़ा आनंदित और शांत है। अब एक
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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