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________________ डर लग रहा है कि कहीं घर जाकर यह खो तो नहीं जाएगी शांति ! अभी खोयी नहीं है, लेकिन डर, कि कहीं खो तो न जाएगी! बेचैनी शुरू हो गयी। अभी चित्त शांत है और अशांति शुरू हो गयी। अभी सुख बरस रहा है, लेकिन भय समा गया कि कहीं खो तो न जाएगा ! जब भी तुम सुखी होते हो, तभी भीतर से भय भी आ जाता है कि कहीं खो तो न जाएगा । जैसे दुख के साथ यह भाव आता है - कैसे छुटकारा हो, वैसे सुख के साथ यह भाव आता है-कहीं छुटकारा हो न जाए ! दोनों ही हालत में तुम डोल गये। दोनों ही हालत में तृप्ति नष्ट हो गयी, अतृप्त हो गये, असंतोष पैदा हो गया। तो दुखी तो दुखी हैं ही, यहां सुखी भी दुखी हैं। जिनके पास धन नहीं है, परेशान हैं कि धन कैसे हो? जिनके पास धन है, वे परेशान हैं कि कहीं खो न जाए ! कहीं चोर न चुरा लें! कहीं सरकार छीन ले! कहीं कम्यूनिज्म न आ जाए कहीं ऐसा न हो जाए ! कहीं वैसा न हो जाए ! क्या भरोसा ! तो जिसके पास धन नहीं है, वह तो शायद रात ठीक से सो भी जाता है, जिसके पास है, वह सो ही नहीं पाता। वह और भयभीत है। उसके ऊपर निन्यानबे का फेर है। वह चिंता चिंता में ही लगा रहता है। कैसे बचाऊं! पहले लोग सोचते हैं, धन होगा तो बड़ी सुरक्षा होगी, फिर चिंता पैदा होती है कि अब धन की सुरक्षा कैसे करें? जिनको तुम धनी कहते हो, उनको तुम्हें धनी कहना नहीं चाहिए, ज्यादा . से ज्यादा रखवाले, पहरेदार ! धन की मालकियत कहां संभव है! बस कोई पहरा देता रहता है। पहरेदारी में ही तुम समझते हो कि तुम मालिक हो गये। तृप्त तो वही है जो सुख और दुख में समभावी है। दुख आता है तो कहता नहीं कि जाओ । सुख आता है तो कहता नहीं कि रुको। जैसी मर्जी । अपनी मर्जी से आए, रुकना हो रुको, जाना हो जाओ। सुख और दुख दोनों के साथ उसकी अंतर्दशा एक-सी रहती है। और यह बाहर की ही बात नहीं है, भीतर भी ध्यान का यही सूत्र है। एक बुरा विचार मन में आया-चोरी कर लें, हत्या कर दें, तुम इसकी भी निंदा मत करो। तुम इसे भी देखते रही। इससे भी कुछ लेना-देना नहीं है। यह विचार तुम नहीं हो। तुम इसके साक्षी हो। एक अच्छा विचार आया कि सब दान कर दें, एक बड़ा मंदिर बना दें, अस्पताल खोल दें, यह भी एक विचार है। तुम इससे छाती न फुला लो। अकड़ मत जाओ कि कितना शुभ विचार मेरे भीतर आ रहा है। और अशुभ विचार से तुम परेशान न हो जाओ, माथे पर बल न ले आओ, पसीने-पसीने मत हो जाओ, घबड़ाओ मत कि कैसा अशुभ विचार आ गया! कि मैं कैसा अशुभ हो गया । न अशुभ विचार तुम हो, न शुभ विचार तुम हो, तुम तो साक्षी हो । तो जहां शुभ और अशुभ, भला और बुरा, रात और दिन, सुख और दुख, जीवन और मृत्यु, दोनों के प्रति एक समदृष्टि उत्पन्न हो जाती है, वहीं जीवन का परम द्वार खुलता है। और ऐसे व्यक्ति को पता चलता कि उसको कुछ करने को शेष नहीं रहा है। किंचित् कृत्य न पश्यति । जिसने ऐसा समभाव जान लिया, अब इसे करने कोर कुछ भी नहीं बचा। न कोई साधना, न कोई सिद्धि। न कोई जप-तप, न कोई योग - याग। न इसे मोक्ष पाना है, न इसे संसार छोड़ना है।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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